श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी21. पिता का परलोकगमन
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं पण्डित जगन्नाथ मिश्र की आशा-लता अब बड़ी ही तेजी के साथ बढ़ने लगी। उस लता पर छोटी-छोटी कलियाँ आने लगीं। उनकी भीनी-भीनी गन्ध के कारण मिश्रजी कभी-कभी अपने आपे को भूल जाते। वे सोचने लगते- ‘भगवान मेरी चिराभिलषित आशा को अब शीघ्र ही पूर्ण करेंगे।’ मेरी आशा-लता अब शीघ्र ही फूलने-फलने लगेगी। वह दिन कैसा सुहावना होगा, जिस दिन निमाई को बहू के साथ अपने आँगन में देखूँगा। माता-पिता की यही सबसे मधुर और सुखकरी कामना है कि वे अपने पुत्र को प्यारी पुत्रवधू के साथ देख सकें। संसार में यही उनके लिये एक सुन्दरतम सुअवसर होता है। शचीदेवी के सहित मिश्र जी उसी दिन की प्रतीक्षा करने लगे। ‘तेरे मन कुछ और है, विधना के कुछ और’ विधि को मिश्र जी का मनसूबा मंजूर नहीं था, उसने तो कुछ और ही रचना रच रखी थी। मिश्र जी अपने प्यारे पुत्र का विवाहोत्सव इस शरीर से न देख सके। निमाई अब ग्यारह वर्ष के हो गये। नियमित समय पर पढ़ने जाते और रोज आकर पिता जी के चरणों में प्रणाम करते। एक दिन उन्होंने देखा, पिता जी ज्वर के कारण अचेत पड़े हैं। उन्होंने घबड़ाकर माता से पूछा- ‘अम्मा! पिता जी को क्या हो गया है?’ उदास होकर माता ने कहा- ‘बेटा! तेरे पिता को ज्वर आ गया है।’ निमाई पिता की खाट के पास जा बैठे और धीरे-धीरे उनके माथे पर हाथ फेरने लगे। निमाई के सुकोमल शीतल कर-स्पर्श से पिता की तन्द्रा दूर हुई। उन्होंने क्षीण स्वर में कहा- ‘निमाई! बेटा! मुझे थोड़ा जल पिता दे।’ निमाई ने पास के बर्तन में से जल पिलाया, अपने वस्त्र से उनका मुँह पोंछा और प्रेम के साथ पूछने लगे- ‘पिता जी! अब आपकी तबीयत कैसी है?’ करवट बदलते हुए मिश्र जी ने कहा- ‘अब मैं अच्छा हूँ, चिन्ता की कोई बात नहीं, तू पढ़ने नहीं गया?’ निमाई ने अन्यमनस्क-भाव से कहा- ‘अब जब तक आपकी तबीयत अच्छी तरह से ठीक नहीं होती, तब तक मैं पढ़ने न जाऊँगा।’ मिश्र जी चुप हो गये, निमाई उदास-भाव से उनके पास बैठे रहे। कई दिन हो गये, ज्वर कम ही नहीं होता था, वैद्य को भी शची देवी ने बुलाया। घर में इतना द्रव्य नहीं था कि बडे़-बड़े वैद्यों को बुलाया जा सके। पास में जो मामूली वैद्य थे उन्हीं की बतायी हुई दवा कभी-कभी दी जाती। किन्तु रोग घटने के स्थान में पढ़ने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (सूर्यास्त के समय कमल मूँद जाते हैं, रस का लोलुप एक भ्रमर भी कमल के साथ उसमें बंद हो गया। रात्रि में कमल के भीतर-ही-भीतर बैठा वह मनसूबे बाँध रहा था) अब थोड़ी देर में मनोहर सुन्दर प्रभात हो जायेगा। भगवान भुवन भास्कर उदित होकर सम्पूर्ण लोक को आलोक प्रदान करेंगे, उस समय मारे प्रसन्नता के कमल खिल जायेगा, चकवा अपनी प्यारी चकवी के रात्रि भर के वियोग को भूलकर उसे पाकर हँसने लगेगा। इस प्रकार वह चिन्ता कर ही रहा था, कि ओहो! बड़े ही कष्ट की बात है, उसी समय एक मतवाला हाथी वहाँ चला आया और जिस कमल की दण्डी में वह फूल था, उसे तोड़कर कुचल डाला। भ्रमर के सब मनसूबे मन-के-मन में ही रह गये। भर्तृ. वै. ज्ञ.