श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
159. जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह
प्रभु के चले जाने पर जगदानन्द जी ने गोविन्द से कहा- ‘तुम जल्दी जाकर प्रभु के पैरों को दबाओ। मैं तुम्हारे लिसे प्रसाद रख छोड़ूंगा। सम्भव है प्रभु सो जायँ।’ यह सुनकर गोविन्द चला गया और लेटे हुए प्रभु के पैर दबाने लगा। प्रभु ने पूछा- ‘जगदानन्द ने प्रसाद पाया?’, गोविन्द ने कहा- ‘प्रभो ! वे पा लेंगे, उन्हें अभी थोड़ा कृत्य शेष है।’ यह कहकर वह धीरे धीरे प्रभु के तलुओं को दबाने लगे। प्रभु कुछ झपकी-सी लेने लगे। थोड़ी देर बाद जल्दी से आँख मलते-मलते कहने लगे- ‘गोविन्द ! जा देख तो सही, जगदानन्द ने प्रसाद पाया या नहीं। यदि पा लिया हो या पा रहे हों तो मुझे आकर फौरन सूचना देना।’ प्रभु की आज्ञा से गाविन्द फिर गया। उसने आकर देखा सब भक्तों को प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद देकर उसी पत्तल पर जगदानन्द जी खाने को बैठे हैं। गोविन्द को देखते ही वे कहने लगे- ‘गोविन्द ! तुम्हारे लिये मैंने अलग से परोसकर रख दिया है, आओ, तुम भी बैठ जाओ।’
गोविन्द ने कहा- ‘मैं पहले प्रभु को सूचना दे आऊँ, तब प्रसाद पाऊँगा।’ यह कहकर वह प्रभु को सुचना देने चला गया। जगदानन्द जी प्रसाद पा रहे हैं, यह सुनकर प्रभु को सन्तोष हुआ और उन्होंने गोविन्द को भी प्रसाद पाने के लिये भेज दिया। गोविन्द ने आकर सभी भक्तों के साथ बैठकर प्रसाद पाया और फिर सभी भक्त अपने अपने स्थानों को चले गये।
इसी प्रकार की प्रेम कलह महाप्रभु और जगदानन्द जी के बीच में प्रायः होती रहती थी। इसमें दोनों ही आनन्द का अनुभव करते थे।
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