श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी159. जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह
जगदानन्द जी ने उसी भाव से हँसकर कहा- ‘तब आये क्यों थे, कोई बुलाने भी तो नहीं गया था।’ प्रभु ने कहा- ‘अपनी इच्छा से आया था, अपनी इच्छा से ही नहीं पाता।’ जगदानन्द जी ने हँसकर कहा- ‘पाइये पाइये, देखिये भात ठण्डा हुआ जाता है।’ प्रभु ने कहा- ‘चाहे ठण्डा हो या गरम जब तक आप मेेरे साथ बैठकर न पावेंगे तब तक मैं भी न पाऊँगा। अपने लिये भी एक पत्तल और परोसिये’। जगदानन्द जी ने मानमिश्रित हास्य के स्वर में कहा- ‘पाइये भी मेरी क्या बात है, मैं तो पीछे ही पाता हूँ, सो आपके पा लेने पर पाऊँगा।’ प्रभु ने कहा- ‘चाहे सदा पीछे ही क्यों न पाते हैं, आज तो मेरे साथ ही पाना पड़ेगा।’ जगदानन्द जी ने कुछ गम्भीरता के स्वर में कहा- ‘प्रभो ! मैंने और रमाई, रघुनाथ आदि सभी ने तो बनाया है। इन्हें प्रसाद देकर तब मैं पा सकता हूँ। अब आपकी आज्ञा को टाल थोड़े ही सकता हूँ। अवश्य पा लूँगा।’ यह सुनकर प्रभु प्रसाद पाने लगे। जो पदार्थ चुक जाता उसे ही जगदानन्द जी उतना ही परोस देते। इस भय से कि जगदानन्द जी नाराज हो जायँगे, प्रभु मना भी नहीं करते और उनकी प्रसन्नता के निमित्त खाते ही जाते। और दिनों की अपेक्षा कई गुना अधिक खा गये, तो भी जगदानन्द मानते नहीं हैं, तब प्रभु ने दीनता के स्वर में कहा- ‘बाबा, अब दया भी करोगे या नहीं। अन्य दिनों की अपेक्षा दस गुना खा गया, अब कब तक और खिलाते जाओगे?’ इतना कहकर प्रभु ने भोजन समान्त किया। जगदानन्द जी ने मुखशुद्धि के लिये लौंग, इलायची और हीरत की के टुकड़े दिये। प्रभु उन्हें खाते हुए फिर वहीं बैठ गये और कहने लगे- ‘जब तक आप मेरे सामने प्रसाद न पा लेंगे तब तक मैं यहाँ से न हटूँगा।’ जगदानन्द जी ने हँसकर कहा- ‘अब आप इतनी चिन्ता क्यों करते हैं, अब तो सबके साथ मुझे प्रसाद पाना ही है, आप चलकर आराम करें।’ यह सुनकर प्रभु गोविन्द से कहने लगे- ‘गोविन्द ! तू यहीं रह और जब तक ये प्रसाद न पा लें तब तक मेरे पास मत आना।’ यह कहकर प्रभु अकेले ही कमण्डलु उठाकर अपने निवास स्थान पर चले गये। |