श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी159. जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह
तीसरे दिन प्रभु स्वयं उनके घर पहुँचे और किवाड़ खटखटाकर बोले- ‘पण्डित ! पण्डित ! भीतर क्या कर रहे हैं, बाहर तो आइये, आपसे एक बात कहनी है।’ किन्तु पण्डित किसकी सुनते हैं, वे तो खटपाटी लिये पड़े हैं। तब प्रभु ने उसी स्वर में बाहर खड़े ही खड़े कहा- ‘देखिये, मैं आपके द्वार पर भिक्षा के लिये खड़ा हूँ और आप किवाड़ भी नहीं खोलते। अतिथि जिसके आरम से निराश लौट जाता है, वह उस मनुष्य के सभी पुण्यों को लेकर चला जाता है। देखिये, आज मेंरी आपके यहाँ भिक्षा है, जल्दी से तैयार कीजिये, मैं समुद्र स्नान और भगवान के दर्शन करके अभी आता हूँ।’ प्रभु इतना कहकर चले गये। अब जगदानन्द जी का क्रोध कितनी देर रह सकता था। प्रभु के लिये भिक्षा बनानी है, बस, इस विचार के आते ही, न जाने उनका क्रोध कहाँ चला गया। वे जल्दी से उठे। उठकर शौचादि से निवृत्त होकर स्नान किया और रघुनाथ, रमाई पण्डित तथा और भी अपने साथी दो चार गौड़ीय विरक्त भक्तों को बुलाकर वे प्रभु की भिक्षा का प्रबन्ध करने लगे। भोजन बनाने में तो वे परम प्रवीण थे ही, भाँति-भाँति के बहुत-से-सुन्दर सुन्दर पदार्थ उन्होंने प्रभु के लिये बना डाले। अभी वे पूरे पदार्थ को बना भी नहीं पाये थे कि इतने में ही मुसकराते हुए प्रभु स्वयं आ उपस्थित हुए। मन में अत्यन्त ही प्रसन्न होते हुए और ऊपर से हास्य से युक्त किंचित रोषयुक्त मुख से उन्होंने एक बार प्रभु की ओर देखा और फिर शाक को उलटने पल्टने लगे। प्रभु जल्दी से एक आसन स्वयं ही लेकर बैठ गये। अब तो जगदानन्द जी उठे। उन्होंने नीची दृष्टि किये हुए वहीं बैठे-ही-बैठे एक थाल में प्रभु के पादपद्मों को पखारा। प्रभु ने इसमें तनिक भी आपत्ति नहीं की। फिर उन्होंने भाँति-भाँति के पदार्थों को सजाकर प्रभु के सामने परोसा। प्रभु चुपचाप बैठे रहे। जगदानन्द जी का अब मौन भंग हुआ। उन्होंने अपनी हँसी को भीतरी ही भीतर रोकते हुए लज्जायुक्त मधुर वाणी से अपनापन प्रकट करते हुए कहा- ‘प्रसाद पाते क्यों नहीं’ |