श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी79. परम सहृदय निमाई की निर्दयता
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। पता नहीं, भगवान ने विषमता में ही महानता छिपा रखी है क्या? ‘महतो महीयान्’ भगवान ‘अणोरणीयान्’ भी कहे जाते हैं। निराकर होने पर भी प्रभु साकार-से दीखते हैं। अकर्ता होते हुए भी सम्पुर्ण विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के एकमात्र कारण वे ही कहे जाते हैं। अजन्मा होने पर भी उनके शास्त्रों में जन्म कहे और सुने जाते हैं। इस प्रकार की विषमता में ही तो कहीं ईश्वरता छिपी हुई नहीं रहती। महापुरुषों के जीवन में भी सदा ऐसी ही विषमता देखने में आती हैं। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का पढ़ जाइये, उसमें स्थान-स्थान पर भारी विषमता ही भरी हुई मिलेगी। श्रीमद्रामायण में विषमता का भारी भण्डार ही हैं अत्यन्त सुकुमार होने पर भी राम भंयकर राक्षसों का बात-की-बात में वध कर डालते हैं। तपस्वी होते हुए भी धनुष-बाण को हाथ से नहीं छोड़ते। मैत्री करने पर भी सुग्रीव को भय दिखाते हैं। सम्पूर्ण जीवन ही उनका विषमतामय है। जो राम अपनी माताओं को प्राणों से भी प्यारे थे, जो पिता की आज्ञा को कभी नहीं टालते थे, जिनका कोमल हृदय किसी को दु:खी देख ही नहीं सकता था, वे ही वन जाते समय इतने कठोर हो गये कि उन पर माता के वाक्य-बाणों का, उनके अविरत बहते हूए अश्रुओं का, पिता की दीनता से ही हुई प्रार्थना का, विलखते हुए नगरवासियों के करूण-क्रन्दन का, तपस्वी और ॠत्विज वृद्ध ब्राह्मणों के हंस के समान श्वेत बालों वाली दुहाई का, राजकर्मचारी और भगवान वसिष्ठ की भाँति-भाँति की नगर में रहने वाली युक्तियों का तनिक भी असर नहीं पड़ा। वे सभी को रोते-विलखते छोड़कर, सभी को शोकसागर में डुबाकर अपने हृदय को वज्र से भी अधिक कठोर बनाकर वन के लिये चले ही गये। इससे उनकी कठोरता का परिचय मिलता है। सीतामाता के हरण के समय के उनके क्रोध को पढ़कर कलेजा काँपने लगता है, मानो वे अपनी प्राणप्यारी प्रिया के पीछे सम्पुर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को बात-की-बात में अपने अमोघ बाणों से नष्ट ही कर डालेंगे। स्फटिक-शिला पर बैठकर अपनी प्रिया के लिये वे कितने अधीरता को सुनकर पाषाण भी पिघल गये थे। लंका पर चढ़ाई के पूर्व, हनुमान के आने पर सीता जी के लिये वे कितने व्याकुल-से दिखायी पड़ते थे! उनकी छोटी-छोटी बातों को स्मरण करके रोते रहते थे। उस समय कौन नहीं समझता था कि सीता को पाते ही ये एकदम उन्हें गले से लगाकर खूब रुदन न करेंगे और उन्हें प्रेमपूर्वक अपने अंक में न बिठा लेंगे। किंतु रावण के वध के अनन्तर उनका रंग ही पलट गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इन महात्माओं के हृदय वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्पों से भी अधिक कोमल होते हैं, ऐसे इन असाधारण लोकोत्तर महापुरुषों के चरितों को जानने में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है। उत्तररामच. तृतीयांक 2/7/23