श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी82. संन्यास-दीक्षा
वैराग्य में कितना मजा है, इसे वही पुरुष जान सकता है, जिसके हृदय में प्रभु के पादपद्मों में प्रीति होने की इच्छा उत्पन्न हो गयी हो, जिसे संसारी विषय-भोग काटने के लिये दौड़ते हों, वही वैराग्य में महान सुख का अनुभव कर सकता है। जिसकी इन्द्रियाँ सदा विषय-भोगों की ही इच्छा करती रहती हों, जिसका मन सदा संसारी पदार्थों का ही चिन्तन करता रहता हो, वह भला वैराग्य के सुख को समझ ही क्या सकता है। मन जब संसारी भोगों से विरक्त होकर सदा महान त्याग के लिये तड़पता रहे, जिसका वैराग्य पानी के बुद्बुदों के समान क्षणिक न होकर स्थायी हो, वही त्याग के असली सुख का अनुभव करने का सर्वोत्तम अधिकारी है। जो जोश में आकर क्षणिक वैराग्य के कारण त्याग-पथ का अनुसरण करने लगते हैं, उनका अन्त में पतन हो जाता है, इसीलिये तो कहा है- ‘त्याग वैराग्य के बिना टिक ही नहीं सकता।’ इसलिये जो वैराग्य-राग-रसिक नहीं बना वह भगवत-राग-रस का पूर्ण रसिया भक्तिनिष्ठ भागवत बन ही नहीं सकता। हृदय त्याग के लिये इस प्रकार अकुलाता रहे, जिस प्रकार जल में बहुत देर डूब की लगाये रहने पर प्राण श्वास लेने के लिये अकुलाने लगते हैं। महाप्रभु को संन्यास-दीक्षा देने के लिये भारती महाराज राजी हो गये। यह देखकर प्रभु की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वे प्रेम में बेसूध बने हुए सम्पूर्ण रात्रि भगवन्नाम का कीर्तन करते रहे और आनन्द के उल्लास में आसन से उठ-उठकर पागल की तरह नृत्य करते रहे। जिस प्रकार नवागत वधू से मिलने के लिये अनूरागी युवक बेचैनी के साथ रात्रि होने की प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार महाप्रभु संन्यास-धर्म में दीक्षित होने के लिये उस रात्रि के अन्त होने की प्रतीक्षा करते रहे। उस रात्रि में प्रभु को क्षणभर के लिये भी निद्रा नहीं आयी। निरन्तर संकीर्तन करते रहने के कारण प्रभु के नेत्र कुछ आप-से-आप ही मुंदने-से लगे। इतने में ही आम्र की डालों पर बैठे हुए पक्षियों ने अपने कोमल कण्ठों से भाँति-भाँति के स्वरों में गायन आरम्भ किया। मानो वे महाप्रभु के संन्यास ग्रहण करने के उपलक्ष्य में पहले से ही मंगलाचरण कर रहे हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अस्थि, मांस और रूधिर आदि पदार्थों से बने हुए इस शरीर के प्रति अहंता को त्याग दो, स्त्री-पुत्र तथा कुटुम्ब-परिवार वालों में ममता मत रखो। इस क्षणभंगुर असार संसार की वास्तविक स्थिति को समझते हुए वैराग्य से प्रेम करने वाले बन, सदा भक्तिनिष्ठ होकर ही जीवन को बिताओ। श्रीमद्भा. माहात्म्य. 4/79