श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी42. अद्वैताचार्य और उनका सन्देह
भगवान तो प्राणिमात्र के हृदय में विराजमान हैं। समानरूप से संसार के अणु-परमाणु में व्याप्त हैं, किंतु पात्रभेद के कारण उनकी उपलब्धि भिन्न-भिन्न प्रकार से होती है। भगवान निशानाथ की किरणें समानरूप से सभी वस्तुओं पर एक-सी ही पड़ती हैं। पत्थर, मिट्टी घड़ा, वस्त्र पर भी वे ही किरणें पड़ती हैं और शीश तथा चन्द्रकान्तमणि पर भी उन्हीं किरणों का प्रभाव पड़ता है। मिट्टी तथा पत्थर में निशानाथ का प्रभाव प्रकट नहीं होता है, वहाँ घोर तमोगुण के कारण अव्यक्तरूप से ही बना रहता है, किंतु स्वच्छ और निर्मल चन्द्रकान्तमणि पर उनकी कृपा की तनिक-सी किरण पड़ते ही उसकी विचित्र दशा हो जाती है। उन लोकसुखकारी भगवान निशानाथ की कृपा को पाते ही उसका हृदय पिघलने लगता है और वह द्रवीभूत होकर बहने लगता है। इस कारण चन्द्रदेव उसके प्रति अधिकाधिक स्नेह करने लगते हैं। इसी कारण उसका नाम ही चन्द्रकान्तमणि पड़ गया। उसका चन्द्रमा के साथ नित्य का शाश्वत सम्बन्ध हो गया। वह निशानाथ से भिन्न नहीं है। निशानाथ के गुणों का उसमें समावेश हो जाता है। इसी प्रकार भक्तों के हृदय में भगवान! की कृपा-किरण पड़ते ही वह पिघलने लगता है। चन्द्रकान्तमणि तो चाहे चन्द्रमा की किरणों से बनी भी रहे, किंतु भक्तों के हृदय का फिर अस्तित्व नहीं रहता, वह कृपा-किरणों के पड़ते ही पिघल-पिघलकर प्रभु के प्रेमपीयूषार्णव में जाकर तदाकार हो जाता है। यही भक्तों की विशेषता है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने यहाँ तक कह डाला है- मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम तें अधिक राम कर दासा।। भगवद्भक्तों की महिमा ही ऐसी है, भक्तों के समझने के लिये भी प्रभु की कृपा की ही आवश्यकता है। जिस पर भगवान की कृपा नहीं, वह भक्तों की महिमा को भला समझ ही क्या सकता है? जिसके हृदय में उस रसराज के रस-सुधामय एक बिन्दु का भी प्रवेश नहीं हुआ, जिसमें उसके ग्रहण करने की किंचिन्मात्र भी शक्ति नहीं हुई, वह रसिकता के मर्म को समझ ही केसे सकता है? इसीलिये रसिकशिरोमणि भगवत-रसिक जी कहते हैं- ‘भगवत-रसिककी’ बातें रसिक बिना कोउ समुझि सके ना। महाप्रभु के नवानुराग की चर्चा नदिया के सभी स्थानों में भाँति-भाँति से हो रही थी। उस समय सभी वैष्णव श्री अद्वैताचार्य जी के यहाँ एकत्रित हुआ करते थे। अद्वैताचार्य के स्थान को वैष्णवों का अखाड़ा ही कहना ठीक है। वहाँ पर सभी नामी-नामी वैष्णवरूपी पहलवान एकत्रित होकर भक्तितत्त्वरूपी युद्ध का अभ्यास किया करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो भगवान की पूजा तो करता है, किंतु भगवद्भक्त वैष्णवों की पूजा नहीं करता, वह यथार्थ में भक्त नहीं है, उसे तो दाम्भिक ही समझना चाहिये। भगवान तो भक्त की ही पूजा से अत्यन्त संतुष्ट होते हैं, इसलिये सर्वप्रयत्न वैष्णवों की ही पूजा करनी चाहिये। श्रीविष्णुपुराण