श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
148. श्री रघुनाथदास जी का गृह त्याग
प्रभु ने अत्यन्त ही उल्लास के साथ कहा-'हां, रघु आ गया? बड़े आनन्द की बात है।' यह कहरक प्रभु ने उठकर रघुनाथदास जी का आलिंगन किया। प्रभु का प्रेमालिंगन पाते ही रघुनाथदास जी की सभी रास्ते की थकान एकदम मिट गयी। वे प्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे, प्रभु अपने कोमल करों से उनके अश्रु पोंछते हुए धीरे-धीरे उनके सिर पर हाथ फेरने लगे। प्रभु के सुखद स्पर्श से सन्तुष्ट होकर रघुनाथदास जी ने उपस्थित सभी भक्तों के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और सभी ने उनका आलिंगन किया। रघुनाथदास जी के उतरे हुए चेहरे को देखकर प्रभु ने स्वरूप दामोदर जी से कहा-'स्वरूप! देखते हो न, रघुनाथ कितने कष्ट से यहाँ आया है। इसे पैदल चलने का अभ्यास नहीं है। बेचारे को क्या काम पड़ा होगा? इनके पिता और ताऊ को तो तुम जानते ही हो। चक्रवर्ती जी (प्रभु के पूर्वाश्रम के नाना श्री नीलाम्बर चक्रवर्ती)-के साथ उन दोनों का भ्रातृभाव का व्यवहार था, इसी सम्बन्ध से ये दोनों भी हमें अपना देवता करके ही मानते हैं। घोर संसारी हैं। वैसे साधु-वैष्णवों की श्रद्धा के साथ सेवा भी करते हैं, किन्तु उनके लिये धन-सम्पत्ति ही सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। वे परमार्थ से बहुत दूर हैं। रघुनाथ के ऊपर भगवान ने परम कृपा की, जो इसे उस अन्धकूप से निकालकर यहाँ ले आये।
रघुनाथदास जी ने धीरे-धीरे कहा-'मैं तो इसे श्रीचरणों की ही कृपा समझता हूँ, मेरे लिये तो ये ही युगलचरण सर्वस्व हैं।'
महाप्रभु ने स्नेह के स्वर में स्वरूप गोस्वामी से कहा-'रघुनाथ को आज से मैं तुम्हें ही सौंपता हूँ। तुम्हीं आज से इनके पिता, माता, भाई, गुरु और सखा सब कुछ हो। आज से मैं इस 'स्वरूप का रघु' कहा करूंगा।' यह कहकर प्रभु ने रघुनाथदास जी का हाथ पकड़कर स्वरूप के हाथ में दे दिया। रघुनाथदास जी ने फिर से स्वरूप दामोदर जी के चरणों में प्रणाम किया और स्वरूप गोस्वामी ने भी उन्हें आलिंगन किया।
उसी समय गोविन्द ने धीरे से रघुनाथ को बुलाकर कहा-'रास्ते में न जाने कहाँ पर कब खाने को मिला होगा, थोड़ा प्रसाद पा लो।' रघुनाथ जी ने कहा,'समुद्रस्नान और श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के अनन्तर प्रसाद पाऊंगा।' यह कहकर वे समुद्रस्नान करने चले गये और वहीं से श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करते हुए प्रभु के वासस्थान पर लौटा आये।
महाप्रभु के भिक्षा कर लेने पर गोविन्द प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद रघुनाथदास जी को दिया। प्रभु का प्रसादी महाप्रसाद पाकर रघुनाथ जी वहीं निवास करने लगे। गोविन्द उन्हें नित्य महाप्रसाद दे देता था और ये उसे भक्ति-भाव से पा लेते थे। इस प्रकार ये घर छोड़कर विरक्त-जीवन बिताने लगे।
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