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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
126. पुरी में गौड़ीय भक्तों का पुनरागमन
पानीहाटी-निवासी राघव पण्डित की भगिनी महाप्रभु के चरणों में बड़ी श्रद्धा रखती थी, वह प्रतिवर्ष सुन्दर-सुन्दर सैकड़ों वस्तुएँ बनाकर एक बड़ी-सी झोली में रखकर राघव पण्डित के हाथों प्रभु के पास भेजती। उसकी चीजें कितने दिन भी क्यों न रखी रहें न तो सड़ती थीं और न खराब होती थीं। भक्तों में राघव पण्डित की झाली प्रसिद्ध थी। प्रभु भी राघव की झाली की चीजों को बहुत दिनों तक सुरक्षित रखते थे। नवद्वीप, पानीहाटी, कुलीनगाँव, खण्डग्राम तथा शान्तिपुर आदि सभी स्थानों के भक्त एकत्रित होकर सबसे पहले शचीमाता के आंगन में एकत्रित होते और माता की चरण-धूलि सिर पर चढ़ाकर उनकी आज्ञा लेकर ही वे प्रस्थान करते। अबके माता ने देखा चन्द्रशेखर आचार्यरत्न के साथ उनकी गृहिणी अर्थात शचीमाता की भगिनी भी जा रही हैं। अपने बच्चों के सहित आचार्य पत्नी सीतादेवी भी नीलाचल जाने को तैयार है। श्रीवास पण्डित की पत्नी मालिनीदेवी, शिवानन्द सेनकी स्त्री तथा उनका पुत्र चैतन्यदास, सपत्नीक मुरारी गुप्त ये सभी यात्रिक वेश में खड़े हुए हैं। डबडबायी आँखों से और रूँधे हुए कण्ठ से माता ने सभी को जाने की आज्ञा प्रदान की और रोते-रोते उन्होंने कहा- 'तुम्हीं सब बड़े भाग्यवान हो, जो पुरी जाकर निमाई के कमलमुख को देखोगे, न जाने मेरा भाग्योदय कब होगा, जब उस सुवर्णरंग वाले निमाई के सुन्दर मुख के देखकर अपने हृदय को शीतल बना सकूँगी। तुम सभी उससे कहना कि उस अपनी दुःखिनी माता को एक बार आकर दर्शन तो दे आये। मैं उसके कमलमुख को देखने के लिये कितनी व्याकुल हूँ। इसी प्रकार अपनी उम्र की स्त्रियों से विष्णुप्रिया जी ने भी संकेत से यही अभिप्राय प्रकट किया। सभी स्त्री-पुरुष मातृचरणों की वन्दना करते हुए पुरी को चल दिये। हरि-कीर्तन करते हुए किसी को भी रास्ते का कष्ट प्रतीत नहीं हुआ। सभी जगन्नाथपुरी में पहुँच गये।
भक्तों का आगमन सुनकर महाप्रभु ने उनके स्वागत के लिये पहले से ही स्वरूपगोस्वामी तथा गोविन्द आदि भक्तों को भेज दिया था। इन सभी ने जाकर भक्तों के अग्रणी अद्वैताचार्य के चरणों में प्रणाम किया और उन्हें मालाएँ पहनायीं। फिर महाप्रभु भी आकर मिल गये और सभी को धूम-धाम के साथ अपने स्थान को ले गये। सभी के ठहरने तथा प्रसाद आदि का पूर्व की ही भाँति प्रबन्ध कर दिया गया। भक्तों की बहुत-सी स्त्रियों ने पहले-ही-पहल प्रभु को संन्यासी-वेष में देखा था। वे प्रभु के ऐसे भिक्षुक-वेष देखकर जोरों से रुदन करने लगीं। भक्तों की स्त्रियाँ बारी-बारी से प्रभु को भिक्षा कराने लगीं। महाप्रभु बड़े ही प्रेम के साथ सभी के निमंत्रण को स्वीकार करके उनके स्थानों पर जा-जाकर भिक्षा करने लगे। पूर्वकी ही भाँति रथयात्रा, हेरापंचमी, जन्माष्टमी, दशहरा और दीपावली आदि के उत्सव मनाये गये। गौड़ीय भक्त संकीर्तन करते-करते उन्मत्त हो जाते थे और बेसुध होकर कीर्तन में लोट-पोट हो जाते। महाप्रभु सबके साथ जोरों से नृत्य करते। एक दिन नृत्य करते-करते महाप्रभु कुएँ में गिर पड़े। तब भक्तों ने उन्हें निकाला, महाप्रभु के शरीर में किसी प्रकार की चोट नहीं लगी।
महाप्रभु पुरी में भक्तों की विविध प्रकार से इच्छा पूर्ण किया करते थे। भक्त उन्हें जिस प्रकार भी खिला-पिलाकर सन्तुष्ट होना चाहते थे प्रभु उनकी इच्छानुसार उसी प्रकार भिक्षा करके उन्हें सन्तुष्ट करते थे।
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