श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी125. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार
अर्थात 'महाबली सिंह शूकर और हाथियों का पुष्टकारी मांस ही खाता है फिर भी वर्षभर में केवल एक ही बार काम-क्रीड़ा करता है। (किसी-किसी का कथन है कि सिंह सम्पूर्ण आयु में एक ही बार रति करता है।) इसके विपरीत कपोत साधारण तृणों के अग्रभाग तथा कंकड़ आदि को ही खाकर जीवन-निर्वाह करता है, फिर भी नित्यप्रति काम-क्रीड़ा करता है! (कपोत के समान कामी पक्षी दूसरा कोई है ही नहीं, वह दिन में अनेकों बार रति करता है।) यदि भोजन ही ऊपर कामी होना और न होना अवलम्बित हो तो बताओ इस बैषम्य का क्या कारण है?' पता नहीं इस श्लोक का श्रीपाद प्रकाशानन्द जी पर क्या असर हुआ, किन्तु इसके बाद फिर पत्र-व्यवहार बन्द ही हो गया। सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु से आज्ञा माँगी कि हमें काशी जाने की आज्ञा दीजिये। हम वहाँ प्रकाशानन्द जी को शास्त्रार्थ में पराजित करके उन्हें भक्ति तत्त्व समझा आवेंगे। महाप्रभु को शास्त्रार्थ और जय-पराजय ये सांसारिक प्रतिष्ठा के कार्य पसंद नहीं थे। भगवद्-भक्त किसे पराजित करें। सभी तो उसके इष्टदेव के स्वरूप हैं। इसलिये सभी को 'सीयराम' समझकर वह हाथ जोड़े हुए प्रणाम करता है- सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।। किन्तु सार्वभौम कैसे भी भक्त सही, उन्हें अपने शास्त्र का कुछ-न-कुछ थोड़ा-बहुत अभिमान तो था ही। भक्तों के सामने वह दबा रहता था और अभिमानियों के सम्मुख प्रस्फुटित हो जाता था। महाप्रभु के मने करने पर भी उन्होंने काशी जाने के लिये प्रभु से आग्रह किया। महाप्रभु ने उनकी उत्कट इच्छा देखकर काशी जी जाने की आज्ञा दे दी। ये काशी गये भी। किन्तु वहाँ से जैसे गये थे वैसे ही लौट आये, न तो वे महामहिम प्रकाशानन्द जी को शास्त्रार्थ में पराजित ही कर सके और न उन्हें ज्ञानी से भक्त ही बना सके। इससे वे कुछ लज्जित भी हुए और महाप्रभु के सामने आने से संकोच करने लगे। तब महाप्रभु स्वयं उनसे जाकर मिले और उन्हें सान्त्वना देते हुए कहने लगे- 'आपका कार्य बड़ा ही स्तुत्य था। भक्तिविहीन जीवों को भक्ति-मार्ग में लाने की इच्छा किसी भाग्यशाली महापुरुष के ही हृदयमें होती है।' महाप्रभु के इन सान्त्वनापूर्ण वाक्यों से सार्वभौम की लज्जा कुछ कम हुई। इस घटना के अनन्तर उनका प्रेम महाप्रभु के चरणों में और भी अधिक बढ़ गया। |