श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
या ब्रजरज की परस से, मुकति मिलत है चार । आँगन की जिस रज में कन्हैया खेलते हैं, वह रज कोई ले ले तो उसको चारों प्रकार की मुक्ति मिल जाए। पर यशोदा मैया उसी रज को बुहार कर बाहर फेंक देती हैं। मैया के लिए तो वह कूड़ा करकट है। अब मुक्ति किसको चाहिए? मैया की केवल कन्हैया की तरफ ही दृष्टि है। न तो कन्हैया के ऐश्वर्य की तरफ दृष्टि है और न योग्यता की तरफ ही दृष्टि है। संतों ने कहा है कि अगर भगवान से मिलना हो तो साथ में साथी भी नहीं होना चाहिए और समान भी नहीं होना चाहिए अर्थात साथी और सामान के बिना उनसे मिलो। जब साथी, सहारा साथ में है, तो तुम क्या मिले भगवान से? और मन, बुद्धि, विद्या, धन आदि सामान साथ में बँधा रहेगा तो उसका परदा (व्यवधान) रहेगा। परदे में मिलन थोड़े ही होता है! वहाँ तो कपड़े का भी व्यवधान होता है। कपड़ा ही नहीं, माला भी आड़ में आ जाए तो मिलन क्या हुआ? इसलिए साथ में कोई साथी और सामान न हो; फिर भगवान से जो मिलन होगा, वह बड़ा विलक्षण और दिव्य होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 7।75।3
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