श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । अर्थ- मूर्ख लोग मेरे संपूर्ण प्राणियों के महान ईश्वरूप परमभाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं। व्याख्या- ‘परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्’- जिसकी सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना करती है, चर-अचर, स्थावर-जंगम प्राणियों को पैदा करती है; जो प्रकृति और उसके कार्यमात्र का संचालक, प्रवर्तक, शासक और संरक्षक है; जिसकी इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिलता; प्राणी अपने कर्मों के अनुसार जिन-जिन लोकों में जाते हैं, उन-उन लोकों में प्राणियों पर शासन करने वाले जितने देवता हैं, उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जानने वाला है- ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वरूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है। ‘परं भावम्’ कहने का तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभाव को अर्थात करने में, न करने में और उलट फेर करने में जो सर्वथा स्वतंत्र है; जो कर्म, क्लेश, विपाक आदि किसी भी विकास से कभी आबद्ध नहीं है; जो क्षर से अतीत और अक्षर से भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रों में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध है[1]- ऐसे मेरे परमभाव को मूढ़ लोग नहीं जानते, इसी से वे मेरे को मनुष्य- जैसा मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं। ‘मानुषीं तनुमाश्रितम्’- भगवान को मनुष्य मानना क्या है? जैसे साधारण मनुष्य अपने को शरीर, कुटुम्ब-परिवार, धन-संपत्ति, पद-अधिकार आदि के आश्रित मानते हैं अर्थात शरीर, कुटुम्ब आदि को इज्जत-प्रतिष्ठा को अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा मानते हैं; उन पदार्थों के मिलने से अपने को बड़ा मानते हैं और उनके न मिलने से अपने को छोटा मानते हैं; और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे, बीच में प्रकट हो जाते हैं तथा अंत में पुनः अप्रकट हो जाते हैं[2], ऐसे ही वे मेरे को साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरे को मनुष्यशरीर के परवश मानते हैं अर्थात जैसे साधारण मनुष्य होते हैं, ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं- ऐसा मानते हैं। भगवान शरीर के आश्रित नहीं होते। शरीर के आश्रित तो वे ही होते हैं, जिनको कर्मफल भोग के लिए पूर्वकृत कर्मों के अनुसार शरीर मिलता है। परंतु भगवान का मानवीय शरीर कर्मजन्य नहीं होता। वे अपनी इच्छा से ही प्रकट होते हैं- ‘इच्छयाऽऽत्तवपुषः’[3] और स्वतंत्रतापूर्वक मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतार लेते हैं। इसलिए उनको न तो कर्मबंधन होता है और न वे शरीर के आश्रित होते हैं, प्रत्युत शरीर उनके आश्रित होता है- ‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि’[4] अर्थात वे प्रकृति को अधिकृत करके प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य प्राणी तो प्रकृति के परवश होकर जन्म लेते हैं तथा प्रकृति के आश्रित होकर ही कर्म करते हैं, पर भगवान स्वेच्छा से, स्वतंत्रता से अवतार लेते हैं और प्रकृति भी उनकी अध्यक्षता में काम करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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