श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
श्रीभगवानुवाच अर्थ- श्रीभगवान बोले- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ‘यह’- रूप से कहे जाने वाले शरीर को ‘क्षेत्र’ कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग ‘क्षेत्रज्ञ’ नाम से कहते हैं। व्याख्या- ‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते’- मनुष्य ‘यह पशु है, यह पक्षी है, यह वृक्ष है’ आदि-आदि भौतिक चीजं को इदंता से अर्थात ‘यह’ –रूप से कहता है कि और इस शरीर को कभी ‘मैं’ –रूप से तथा कभी ‘मेरा’ –रूप से कहता है। परंतु वास्तव अपना कहलाने वाला शरीर भी इदंता से कहलाने वाला ही है। चाहे स्थूल शरीर हो, चाहे सूक्ष्म शरीर हो और चाहे कारण शरीर हो, पर वे हैं सभी इदंता से कहलाने वाले ही। जो पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन पाँच तत्त्वों से बना हुआ है अर्थात जो माता-पिता के रज-वीर्य से पैदा होता है, उसको स्थूल शरीर कहते हैं। इसका दूसरा नाम ‘अन्नमयकोश’ भी है; क्योंकि यह अन्न के विकार से ही पैदा होता है और अन्न से ही जीवित रहता है। अतः यह अन्नमय, अन्नस्वरूप ही है। इंद्रियों का विषय होने से यह शरीर ‘इदम्’ (‘यह’) कहा जाता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि- इस सत्रह तत्त्वों से बने हुए को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इन सत्रह तत्त्वों में से प्राणीं की प्रधानता को लेकर यह सूक्ष्मशरीर ‘प्राणमयकोश’, मन की प्रधानता को लेकर यह ‘मनोमयकोश’ और बुद्धि की प्रधानता को लेकर यह ‘विज्ञानमयकोश’ कहलाता है। ऐसा यह सूक्ष्मशरीर भी अंतःकरण का विषय होने से ‘इदम्’ कहा जाता है। अज्ञान को कारण शरीर कहते हैं। मनुष्य को बुद्धि तक का तो ज्ञान होता है, पर बुद्धि से आगे का ज्ञान नहीं होता, इसलिए इसे अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान संपूर्ण शरीरों का कारण होने से कारण शरीर कहलाता है- ‘अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम्’।[1] इस कारण शरीर को स्वभाव, आदत और प्रकृति भी कह देते हैं और इसी को ‘आनन्दमयकोश’ भी कह देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्यात्म. उत्तर. 5।9
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