श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संबंध- पूर्व श्लोक में ‘एवं ज्ञात्त्वा कृतं कर्म’ पदों से कर्मों को जानने की बात कही गयी थी। अब भगवान आगे के श्लोक से कर्मों को ‘तत्त्व’ से जानने के लिये प्रकरण आरंभ करते हैं। किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । व्याख्या- ‘किं कर्म’- साधारणतः मनुष्य शरीर और इंद्रियों की क्रियाओं को ही कर्म मान लेते हैं तथा शरीर और इंद्रियों की क्रियाएँ बंद होने को अकर्म मान लेते हैं। परंतु भगवान ने शरीर, वाणी और मन के द्वारा होने वाली मात्र क्रियाओं को कर्म माना है- ‘शरीरवांगमनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’।[2] भाव के अनुसार ही कर्म की संज्ञा होती है। भाव बदलने पर कर्म की संज्ञा भी बदल जाती है। जैसे, कर्म स्वरूप से सात्त्विक दीखता हुआ भी यदि कर्ता का भाव राजस या तामस होता है, तो वह कर्म भी राजस या तामस हो जाता है। जैसे, कोई देवी की उपासना रूप कर्म कर रहा है, जो स्वरूप से सात्त्विक है। परंतु यदि कर्ता उसे किसी कामना की सिद्धि के लिये करता है, तो वह कर्म राजस हो जाता है और किसी का नाश करने के लिये करता है, तो वही कर्म तामस हो जाता है। इसी प्रकार यदि कर्ता में फलेच्छा, ममता और आसक्ति नहीं है, तो उसके द्वारा किये गये कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात फल में बाँधने वाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी क्रिया करने अथवा न करने से कर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। इस विषय में शास्त्रों को जानने वाले बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं अर्थात कर्म के तत्त्व का यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते। जिस क्रिया को वे कर्म मानते हैं वह कर्म भी हो सकता है, अकर्म भी हो सकता है और विकर्म भी हो सकता है। कारण कि कर्ता के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप बदल जाता है। इसलिये भगवान मानो यह कहते हैं कि वास्तविक कर्म क्या है? वह क्यों बाँधता है? कैसे बाँधता है? इससे किस तरह मुक्त हो सकते हैं? इन सब का मैं विवेचन करूँगा, जिसको जानकर उस रीति से कर्म करने पर वे बाँधने वाले न हो सकेंगे। यदि मनुष्य में ममता, आसक्ति और फलेच्छा है, तो कर्म न करते हुए भी वास्तव में कर्म ही हो रहा है अर्थात कर्मों से लिप्तता है। परंतु यदि ममता, आसक्ति और फलेच्छा नहीं है, तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है अर्थात कर्मों से निर्लिप्तता है। तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता निर्लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना- दोनों ही अकर्म हैं और यदि कर्ता लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना- दोनों ही कर्म हैं और बाँधने वाले हैं। ‘किमकर्मेति’- भगवान ने कर्म के दो भेद बताये हैं- कर्म और अकर्म। कर्म से जीव बँधता है और अकर्म से[3] मुक्त हो जाता है। कर्मों का त्याग करना अकर्म नहीं है। भगवान ने मोहपूर्वक किये गये कर्मों के त्याग को ‘तामस’ बताया है[4] शारीरिक कष्ट के भय से किये गये कर्मों के त्याग को ‘राजस’ बताया गया है।[5] तामस और राजस त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग होने पर भी कर्मों से संबंध-विच्छेद नहीं होता। कर्मों में फलेच्छा और आसक्ति का त्याग ‘सात्त्विक’ है।[6] सात्त्विक त्याग में स्वरूप से कर्म करना भी वास्तव में अकर्म है; क्योंकि सात्त्विक त्याग में कर्मों से संबंध विच्छेद हो जाता है। अतः कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना वास्तव में अकर्म है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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