श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन । अर्थ- अर्जुन बोले- हे जनार्दन ! आपके इस सौम्य मनुष्य रूप को देखकर मैं इस समय स्थिरचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। व्याख्या- ‘दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन’- आपके मनुष्य रूप में प्रकट होकर लीला करने वाले रूप को देखकर गायें, पशु-पक्षी, वृक्ष, लताएँ आदि भी पुलकित हो जाती है[1], ऐसे सौम्य द्विभुजरूप को देखकर मैं होश में आ गया हूँ, मेरा चित्त स्थिर हो गया है- ‘इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः’, विराटरूप को देखकर जो मैं भयभीत हो गया था, वह सब भय अब मिट गया है, सब व्यथा चली गयी है और मैं अपनी वास्तविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ- ‘प्रकृतिं गतः।’ यहाँ ‘सचेताः’ कहने का तात्पर्य है कि जब अर्जुन की दृष्टि भगवान की कृपा की तरफ गयी, तब अर्जुन को होश आया और वे सोचने लगे कि कहाँ तो मैं और कहाँ भगवान का विस्मयकारक विलक्षण विराटरूप! इसमें मेरी कोई योग्यता, अधिकारिता नहीं है। इसमें तो केवल भगवान की कृपा ही कृपा है। संबंध- अर्जुन की कृतज्ञता का अनुमोदन करते हुए भगवान कहते हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ त्रैलोक्यसौभगमिंद च निरीक्ष्य रूपं यद्गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ।।
(श्रीमद्भा. 110।29।40)
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