श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश मनुष्यमात्र के अनुभव पर आधारित है। इसका दिव्य उपदेश[1] आरंभ करने पर सबसे पहले भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि शरीर और शरीरी एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। शरीर अनित्य, असत् एकदेशीयक और नाशवान् है तथा शरीरी नित्य, सत्, सर्वव्यापी और अविनाशी है। अतः नाशवान् वस्तु का विनाश देखकर दुःखी नहीं होना और अविनाशी वस्तु की अविनाशिता देखकर उसे बनाये रखने की इच्छा नहीं करना ‘विवेक’ कहा जाता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों ही योगमार्गों में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। ‘मैं शरीर से सर्वथा भिन्न हूँ’- ऐसा विवेक होने पर ही मुक्ति की अभिलाषा जाग्रत होती है। मुक्ति की बात तो दूर रही, स्वर्गादि की प्राप्ति की कामना भी अपने को शरीर से अलग मानने पर ही उत्पन्न होती है। इसीलिये भगवान ने अपने उपदेश का आरंभ करते ही सबसे पहले विवेक का ही वर्णन किया है। गीता का उपर्युक्त विवेक प्रकरण दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से प्रारंभ होकर तीसवें श्लोक पर समाप्त होता है। विवेक के इस प्रकरण में भगवान ने आत्मा, अनात्मा, प्रकृति, पुरुष, ब्रह्म, अविद्या, ईश्वर, जीव, जगत, माया आदि किसी भी दार्शनिक शब्द का प्रयोग नहीं किया है, प्रयुक्त सभी मनुष्य सरलता से समझ सकें, ऐसे ढंग से भगवान ने उसका विवेचन किया है। इसका तात्पर्य यह है कि मात्र मनुष्य परमात्मप्राप्ति के अधिकारी हैं; क्योंकि मनुष्य शरीर परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। अतः उपर्युक्त विवेक को महत्त्व देकर मात्र मनुष्य परमात्म प्राप्ति कर सकते हैं। इस प्रकरण में भगवान ने ’बुद्धि’ शब्द का प्रयोग भी नहीं किया है। वास्तव में नित्य और अनित्य, सत् और असत्, अविनाशी और विनाशी, शरीरी और शरीर को अलग-अलग समझने के लिये ‘विवेक’ की ही आवश्यकता है ‘बुद्धि’ की नहीं। विवेक बुद्धि से परे हैं। जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं।[2], ऐसे ही उनकी भिन्नता को प्रकट करने वाला विवेक भी अनादि है। यही विवेक बुद्धि में प्रकट होता है। यह भगवत्प्रदत्त विवेक मात्र प्राणियों को नित्यप्राप्त है। पशु-पक्षी भी खाद्य-अखाद्य पदार्थों की भिन्नता को जानते हैं। लता- वृक्ष में भी सरदी-गरमी, अनुकूलता-प्रतिकूलता की भिन्नता का ज्ञान रहता है। बुद्धि प्रधान होने के कारण मनुष्य को यह विवेक की विशेषता है। विवेक जाग्रत होने पर अर्थात शरीर और शरीरी की भिन्नता का अनुभव होने पर अपने कहलाने वाले शरीर-इंद्रिया-मन-बुद्धिसहित संसार का सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है, जो कि वास्तव में है; और बुद्धि शुद्ध तथा सम हो जाती है अर्थात बुद्धि का विषम भाव मिट जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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