श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। परंतु साधक भक्त भगवान के छोटे, अबोध बालक के समान हैं- बालक सुत सम दास अमानी ।।[1] छोटा बालक स्वाभाविक ही सबको प्रिय लगता है। इसलिए भगवान को भी साधक भक्त अत्यंत प्रिय हैं। 3. सिद्ध भक्त को तो भगवान अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपने को ऋणमुक्त मान लेते हैं, पर साधक भक्त तो (प्रत्यक्ष दर्शन न होने पर भी) सरल विश्वासपूर्वक एकमात्र भगवान के आश्रित होकर उनकी भक्ति करते हैं। अतः उनको अभी तक अपने प्रत्यक्ष दर्शन न देने के कारण भगवान अपने को उनका ऋणी माते हैं और इसीलिए उनको अपना अत्यंत प्रिय कहते हैं। ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे इस प्रकार ऊँ, तत्, सत्- इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमे ‘भक्तियोग’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ । इस (बारहवें) अध्याय में अनेक प्रकार के साधनों-सहित भगवद्भक्ति का वर्णन करके भक्तों के लक्षण बताये गये हैं और इस अध्याय का उपक्रम तथा उपसंहार भी भगवद्भक्ति में ही हुआ है। केवल तीसरे, चौथे और पाँचवें- तीन श्लोकों में ज्ञान के साधन का वर्णन है, पर वह भी भक्ति और ज्ञान की परस्पर तुलना करके भक्ति को श्रेष्ठ बताने के लिए ही है। इसीलिए इस अध्याय का नाम ‘भक्तियोग’ रखा गया है।
इस अध्याय के बीस श्लोकों में से- नवें श्लोक के तृतीय चरण में ‘भगण’ प्रयुक्त होने से ‘भ-विपुलाः’; उन्नीसवें श्लोक के तृतीय चरण में ‘नगण’ प्रयुक्त होने से ‘न-विपुलाः’; और बीसवें श्लोक के प्रथम चरण में ‘नगण’ तथा तृतीय चरण में ‘भगण’ प्रयुक्त होने से ‘संकीर्ण-विपुला’ संज्ञा वाले छन्द हैं। शेष सत्रह श्लोक ठीक ‘पथ्यावक्त्र’ अनुष्टुम छन्द के लक्षणों से युक्त हैं। |
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श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
- ↑ मानस 3।43।4
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