श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
व्याख्या- [पंद्रहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ‘जो मुझे पुरुषोत्तम जान लेता है, वह सब प्रकार से मेरी ही भजन करता है अर्थात वह मेरा अनन्य भक्त हो जाता है।’ इस प्रकार एकमात्र भगवान का उद्देश्य होने पर साधक में दैवी-संपत्ति स्वतः प्रकट होने लग जाती है। अतः भगवान पहले तीन श्लोकों में क्रमशः भाव, आचरण और प्रभाव पहले तीन श्लोकों में क्रमशः भाव, आचरण और प्रभाव को लेकर दैवी-संपत्ति का वर्णन करते हैं।] ‘अभयम्’[1]- अनिष्ट की आशंका से मनुष्य के भीतर जो घबराहट होती है, उसका नाम भय है और उस भय के सर्वथा अभाव का नाम ‘अभय’ है।
भय दो रीति से होता है- (1) बाहर से और (2) भीतर से।
(क) चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प आदि प्राणियों से जो भय होता है, वह बाहर का भय है। यह भय शरीर-नाश की आशंका से ही होता है। परंतु जब यह अनुभव हो जाता है कि यह शरीर नाशवान है और जानने वाला ही है, तो फिर भय नहीं रहता। बीड़ी-सिगरेट, अफीम, भाँग, शराब आदि के व्यसनों को छोड़ने का एवं व्यसनी मित्रों से अपनी मित्रता टूटने का जो भय होता है, वह मनुष्य की अपनी कायरता से ही होता है। कायरता छोड़ने से यह भय नहीं रहता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ दैवी संपत्ति में सबसे पहले ‘अभयम्’ पद देने का तात्पर्य यह है कि जो भगवान के शरण होकर सर्वभाव से भगवान का भजन करता है, वह सर्वत्र अभय हो जाता है। भगवान श्रीराम कहते हैं-
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।। (वाल्मीक. 6।18।33)
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