श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
व्याख्या- ‘संन्यासस्य महाबाहो....... पृथक्केशिनिषूदन’- यहाँ ‘महाबाहो’ संबोधन सामर्थ्य का सूचक है। अर्जुन द्वारा इस संबोधन का प्रयोग करने का भाव यह है कि आप संपूर्ण विषयों को कहने में समर्थ हैं; अतः मेरी जिज्ञासा का समाधान आप इस प्रकार करें, जिससे मैं विषय को सरलता से समझ सकूँ। ‘हृषीकेश’ संबोधन अंतर्यामी का वाचक है। इसके प्रयोग में अर्जुन का भाव यह है कि मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व जानना चाहता है; अतः इस विषय में जो-जो आवश्यक बातें हों, उनको आप (मेरे पूछे बिना भी) कह दें। ‘केशिनिषूदन’ संबोधन विघ्नों को दूर करने वाले का सूचक है। इसके प्रयोग में अर्जुन का भाव यह है कि जिस प्रकार आप अपने भक्तों के संपूर्ण विघ्नों को दूर कर देते हैं, उसी प्रकार मेरे भी संपूर्ण विघ्नों को अर्थात शंकाओं और संशयों को दूर कर दें। जिज्ञासा प्रायः दो प्रकार से प्रकट की जाती है- (1) अपने आचरण में लाने के लिए और (2) सिद्धांत को समझने के लिए। जो केवल पढ़ाई करने के लिए (सीखने के लिए) सिद्धांत को समझते हैं, वे केवल पुस्तकों के विद्वान बन सकते हैं और नयी पुस्तक भी बना सकते हैं, पर अपना कल्याण नहीं कर सकते।[1] अपना कल्याण तो वे ही कर सकते हैं, जो सिद्धांत को समझकर उसके अनुसार अपना जीवन बनाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। यहाँ अर्जुन की जिज्ञासा भी केवल सिद्धांत को जानने के लिए ही नहीं है, प्रत्युत सिद्धांत को जानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनाने के लिए है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ असत् को असत् जानने पर भी तब तक सत् की प्राप्ति नहीं होती, जब तक मनुष्य सत् की प्राप्ति को ही अपने जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य नहीं बना लेता।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज