श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। व्याख्या- '‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’- अपने आपसे अपना उद्धार करे- इसका तात्पर्य है कि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि से अपने आपको ऊँचा उठाए।अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय 'मैं- पन दिखता है। उससे भी अपने को ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर इंद्रियाँ आदि और ‘मैं’- पन- ये सभी प्रकृति के कार्य हैं; अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है, उससे अपने को ऊँचा उठाये।अपना स्वरूप परमात्मा के साथ एक है और शरीर, इंद्रियाँ आदि तथा ‘मैं’- पन प्रकृति के साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करने में, अपने को ऊँचा उठाने में शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि की सहायता मानेगा, इनका सहारा लेगा तो फिर जड़ता का त्याग कैसे होगा? क्योंकि जड़ वस्तुओं से संबंद्ध मानना, उनकी आवश्यकता समझना, उनका सहारा लेना ही खास बंधन है। जो अपने हैं, अपने में है, अभी है और यहाँ हैं, ऐसे परमात्मा की प्राप्ति के लिए शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि की आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत के द्वारा सत की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत के त्याग से सत की प्राप्ति होती है। दूसरा भाव, अभी पूर्वश्लोक में आया है कि प्राकृत पदार्थ, क्रिया और संकल्प में आसक्त न हो, उनमें फँसे नहीं, प्रत्युत उनसे अपने आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ, क्रिया और संकल्प का आरंभ तथा अंत होता है, उनका संयोग तथा वियोग होता है, पर अपने (स्वयं के) अभाव का और परिवर्तन का अनुभव किसी को नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थ आदि में न फँसना उनके अधीन न होना, उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्य मात्र में एक ऐसी विचार शक्ति है, जिसको काम में लाने से वह अपना उद्धार कर सकता है। ‘ज्ञानयोग’ का साधक उस विचार शक्ति से जड़ चेतना का अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड़ (शरीर-संसार) से संबंध विच्छेद कर लेता है। ‘भक्तियोग’ का साधक उसी विचार शक्ति से ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’ इस प्रकार भगवान से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। ‘कर्मयोग’ का साधक उसी विचार शक्ति से मिले हुए शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि पदार्थों को संसार का ही मानते हुए संसार की सेवा में लगाकार उन पदार्थों से संबंध विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। इस दृष्टि से मनुष्य अपनी विचार शक्ति को काम में लेकर किसी भी योग मार्ग से अपना कल्याण कर सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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