|
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।। 11 ।।
अर्थ- श्री भगवान बोले- तुमने शोक न करने योग्य का शोक किया है और पंडिताई की बातें कह रहे हो; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पंडित लोग शोक नहीं करते।
व्याख्या- [मनुष्य को शोक तब होता है, जब वह संसार के प्राणी-पदार्थों में दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं है; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्ण के हैं और ये हमारे वर्ण के नहीं हैं; ये हमारे आश्रम के हैं और ये हमारे आश्रम के नहीं है; ये हमारे पक्ष के हैं और ये हमारे पक्ष के नहीं है। जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है। इन ममता, कामना आदि से ही शोक, चिंता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदि से पैदा न होता हो- यह सिद्धांत है।
गीता में सबसे पहले धृतराष्ट्र ने कहा कि मेरे और पांडु के पुत्रों ने युद्धभूमि में क्या किया? यद्यपि पांडव धृतराष्ट्र को अपने पिता से भी अधिक आदर दृष्टि से देखते थे, तथापि धृतराष्ट्र के मन में अपने पुत्रों के प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रों में और पांडवों में भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं है।
जो ममता धृतराष्ट्र में थी, वह ममता अर्जुन में भी पैदा हुई। परंतु अर्जुन की वह ममता धृतराष्ट्र की ममता के समान नहीं थी। अर्जुन में धृतराष्ट्र की तरह पक्षपात नहीं था; अतः वे सभी को स्वजन कहते हैं- ‘दृष्ट्वेमं स्वजनम्’[1], और दुर्योधन आदि को भी स्वजन कहते हैं- ‘स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव’।[2] तात्पर्य है कि अर्जुन की संपूर्ण कुरुवंशियों में ममता थी और उस ममता के कारण ही उनके मरने की आशंका से अर्जुन को शोक हो रहा था। इस शोक को मिटाने के लिए भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्लोक से आरंभ होता है। इसके अंत में भगवान इसी शोक को अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर- ‘मा शुचः’।[3] कारण कि संसार का आश्रय लेने से ही शोक होता है कि और अनन्यभाव से मेरा आश्रय लेने से तेरे शोक, चिंता आदि सब मिट जाएयँगे।]
‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’- संसार मात्र में दो चीजें हैं- सत् और असत्, शरीरी और शरीर। इन दोनों में शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशी का कभी विनाश नहीं होता, इसलिए उसके लिए शोक करना बनता ही नहीं और विनाशी का विनाश ही होता है, वह एक क्षण भी स्थायी रूप से नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरी को लेकर बन सकता है और न शरीरों को लेकर ही बन सकता है। शोक के होने में तो केवल अविवेक[4] ही कारण है।
|
|