श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः । अर्थ- हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में बाँध देते हैं। व्याख्या- ‘सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः’- तीसरे और चौथे श्लोक में जिस मूल प्रकृति को ‘महद् ब्रह्म’ नाम से कहा है, उसी मूल प्रकृति से सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण पैदा होते हैं।यहाँ ‘इति’ पद का तात्पर्य है कि इन तीनों गुणों से अनन्त सृष्टियाँ पैदा होती हैं तथा तीनों गुणों के तारतम्य से प्राणियों के अनेक भेद हो जाते हैं, पर गुण न दो होते हैं, न चार होते हैं, प्रत्युत तीन ही होते हैं। ‘निबंधन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्’- ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में बाँध देते हैं। वास्तव में देखा जाय तो ये तीनों गुण अपनी तरफ से किसी को भी नहीं बाँधते, प्रत्युत यह पुरुष ही इन गुणों के साथ संबंध जोड़कर बँध जाता है। तात्पर्य है कि गुणों के कार्य पदार्थ, धन, परिवार, शरीर, स्वभाव, वृत्तियाँ, परिस्थितियाँ क्रियाएँ आदि को अपना मान लेने से यह जीव स्वयं अविनाशी होता हुआ भी बँध जाता है, विनाशी पदार्थ, धन आदि के वश में हो जाता है; सर्वथा स्वतंत्र होता हुआ भी पराधीन हो जाता है। जैसे, मनुष्य जिस धन को अपना मानता है, उस धन के घटने-बढ़ने से स्वयं पर असर पड़ता है; जिन व्यक्तियों को अपना मानता है, उनके जन्मने-मरने से स्वयं पर असर पड़ता है; जिस शरीर को अपना मानता है, उसके घटने-बढ़ने से स्वयं पर असर पड़ता है। यही गुणों का अविनाशी देही को बाँधना है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि यह देही स्वयं अविनाशी रूप से ज्यों-का-त्यों रहता हुआ भी गुणों के, गुणों की वृत्तियों के अधीन होकर स्वयं सात्त्विक, राजस और तामस बन जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- जीव का यह अविनाशी स्वरूप वास्तव में कभी भी गुणों से नहीं बँधता; परंतु जब वह विनाशी देह को ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ मान लेता है, तब वह अपनी मान्यता के कारण गुणों से बँध जाता है, और उसको परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कठिनता प्रतीत होती है।[2] देहाभिमान के कारण गुणों के द्वारा देह में बँध जाने से वह तीनों गुणों से पर अपने अविनाशी स्वरूप को नहीं जान सकता। गुणों से देह में बँध जाने पर भी जीव का जो वास्तविक अविनाशी स्वरूप है, वह ज्यों-का-त्यों ही रहता है, जिसका लक्ष्य भगवान ने यहाँ ‘अव्यय’ पद से कराया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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