श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धय्नादी उभावपि । अर्थ- प्रकृति और पुरुष- दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है। व्याख्या- [इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने क्षेत्र के विषय में ‘यच्च’ (जो है), ‘यादृक् च’ (जैसा है), ‘यद्विकारि’ (जिन विकारों वाला है) और ‘यतश्च यत्’ (जिससे जो उत्पन्न हुआ है)– ये चार बातें सुनने की आज्ञा दी थी। उनमें से ‘यच्च’ का वर्णन पाँचवें श्लोक में और ‘यद्विकारि’ का वर्णन छठे श्लोक में कर दिया। ‘यादृक् च’ का वर्णन आगे इसी अध्याय के छब्बीसवें-सत्ताईसवें श्लोकों में करेंगे। अब ‘यतश्च यत्’ का वर्णन करते हुए प्रकृति से विकारों और गुणों को उत्पन्न हुआ बताते हैं। इसमें भी देखा जाए तो विकारों को उत्पन्न हुआ बताते हैं। इसमें भी देखा जाए तो विकारों का वर्णन पहले छठे श्लोक में ‘इच्छा द्वेषः’ आदि पदों से किया जा चुका है। यहाँ गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं- यह बात नयी बतायी है। बारहवें से अठारहवें श्लोक तक ‘ज्ञेय तत्त्व’ (परमात्मा) का वर्णन है और यहाँ उन्नीसवें से चौंतीसवें श्लोक तक ‘पुरुष’- (क्षेत्रज्ञ) का वर्णन है। वहाँ तो ज्ञेय तत्त्व के अंतर्गत ही सब कुछ है और यहाँ पुरुष के अंतर्गत सब कुछ है अर्थात वहाँ ज्ञेय तत्त्व के अंतर्गत पुरुष है और यहाँ पुरुष के अंतर्गत ज्ञेय तत्त्व है। तात्पर्य यह है कि ज्ञेय तत्त्व (परमात्मा) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) –दोनों तत्त्व से दो नहीं है, प्रत्युत एक ही हैं।] ‘प्रकृति पुरुषं चैव विद्धय्नादी उभावपि’- यहाँ ‘प्रकृतिम्’ पद संपूर्ण क्षेत्र (जगत्-) की कारण रूप मूल प्रकृति का है। सात प्रकृति–विकृति (पञ्चमहाभूत, अहंकार और महत्तत्त्व) तथा सोलह विकृति (दस, इन्द्रियाँ, मन और पाँच विषय)– ये सभी प्रकृति के कार्य हैं और प्रकृति इन सबकी मूल कारण है। ‘पुरुषम्’ पद यहाँ क्षेत्रज्ञ का वाचक है, जिसको इसी अध्याय के पहले श्लोक में क्षेत्र को जानने वाला कहा गया है। प्रकृति और पुरुष- दोनों को अनादि कहने का तात्पर्य है कि जैसे परमात्मा का अंश यह पुरुष (जीवात्मा) अनादि है, ऐसे ही यह प्रकृति भी अनादि है। इन दोनों के अनादिपने में फर्क नहीं है; किंतु दोनों के स्वरूप में फर्क है। जैसे- प्रकृति गुणों वाली है और पुरुष गुणों से सर्वथा रहित है; प्रकृति में विकार होता है और पुरुष में विकार नहीं होता; प्रकृति जगत की कारण बनती है और पुरुष किसी का भी कारण नहीं बनता; प्रकृति में कार्य एवं कारण-भाव है और पुरुष कार्य एवं कारण भाव से रहित है।
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