श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । अर्थ- हे कुंतीनंदन! जलों में रस मैं हूँ, चंद्रमा और सूर्य में प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, संपूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाश में शब्द और मनुष्यों में पुरुषार्थ मैं हूँ। व्याख्या- [जैसे साधारण दृष्टि से लोगों ने रुपयों को ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रुपए पैदा करने और उनका संग्रह करने में लोभी आदमी की स्वाभाविक रुचि हो जाती। ऐसे ही देखने, सुनने, मानने और समझने में जो कुछ जगत आता है, उसका कारण भगवान हैं;[1] भगवान के सिवाय उसकी स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं- ऐसा मानने से भगवान में स्वाभाविक रुचि हो जाती है। फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है। यही बात दसवें अध्याय के आठवें श्लोक में कही है कि ‘मैं संपूर्ण संसार का कारण हूँ, मेरे से ही संसार की उत्पत्ति होती है’- ऐसा समझकर बुद्धिमान मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही अठारहवें अध्याय के छियालीसवें श्लोक में कहा है कि ‘जिस परमात्मा से संपूर्ण जगत की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्मों के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।’ इसी सिद्धांत को बताने के लिए यह प्रकरण आया है।] ‘रसोऽहमप्सु कौन्तेय’- हे कुन्तीनंदन! जलों में मैं ‘रस’ हूँ। जल रस- तन्मात्रा[2] से पैदा होता है; रस- तन्मात्रा में रहता है और रस-तन्मात्रा में ही लीन होता है। जल में से अगर ‘रस’ निकाल दिया जाए तो जलतत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतःरस ही जलरूप से है। वह रस मैं हूँ। ‘प्रभास्मि शशिसूर्ययोः’- चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश करने की जो एक विलक्षण शक्ति ‘प्रभा’ है,[3] वह मेरा स्वरूप है। प्रभा रूप-तन्मात्रा से उत्पन्न होती है, रूप-तन्मात्रा में रहती है और अंत में रूप-तन्मात्रा में ही लीन हो जाती है। अगर चंद्रमा और सूर्य में से प्रभा निकाल दी जाए तो चंद्रमा और सूर्य निस्तत्त्व हो जाएंगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चंद्र और सूर्यरूप से प्रकट हो रही है। भगवान कहते हैं कि वह प्रभा भी मैं ही हूँ। ‘प्रणवः सर्ववेदेषु’- सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मेरा स्वरूप है। कारण कि सबसे पहले प्रणव प्रकट हुआ। प्रणव से त्रिपदा गायत्री और त्रिपदा गायत्री से वेदत्रयी प्रकट हुई है। इसलिए वेदों में सार ‘प्रणव’ निकाल दिया जाए तो वेद वेदरूप से नहीं रहेंगे। प्रणव ही वेद और गायत्री रूप से प्रकट हो रहा है। वह प्रणव मैं ही हूँ। ‘शब्दः खे’- सब जगह यह जो पोलाहट दिखती है, यह आकाश है। आकाश शब्द तन्मात्रा से पैदा होता है, शब्द-तन्मात्रा में ही रहता है और अंत में शब्द-तन्मात्रा में ही लीन हो जाता है। अतः शब्द-तन्मात्रा ही आकाश रूप से प्रकट हो रही है। शब्द-तन्मात्रा के बिना आकाश कुछ नहीं है। वह शब्द मैं ही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7।6
- ↑ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन स्थूल पञ्चमहाभूतों के कारणों का नाम भी क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द है, जो ‘पञ्चतन्त्रमात्राएँ’ कहलाती हैं। पञ्चतन्मात्राएँ इंद्रियों और अंतःकरण की विषय नहीं है तथा केवल शास्त्रों से सुनकर मानी जाती हैं। पञ्चमहाभूतों के कार्यों का नाम भी गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द हैं, जो इंद्रियों और अंतःकरण के विषय हैं।
- ↑ रूप-तन्मात्रा में दो शक्तियाँ होती हैं- एक ‘प्रकाशिका’ अर्थात प्रकाश करने वाली और एक ‘दाहिका’ अर्थात जलाने वाली। प्रकाशिका शक्ति को ‘प्रभा’ कहते हैं और दाहिका शक्ति को ‘तेज’ कहते हैं। ‘प्रकाशिका शक्ति’ दाहिका शक्ति के बिना भी रह सकती है (जैसे- मणि, चंद्र आदि में), पर ‘दाहिका शक्ति’ प्रकाशिका शक्ति के बिना नहीं रह सकती। यहाँ ‘प्रभास्मि शशिसूर्ययोः’ पदों में चंद्रमा और सूर्य की ‘प्रकाशिका शक्ति’ की प्रधानता को लेकर ‘प्रभा’ शब्द का प्रयोग हुआ है और आगे इसी अध्याय के नवें श्लोक में ‘तेजश्वास्मि विभावसौ’ पदों में अग्नि की ‘दाहिका शक्ति’ की प्रधानता को लेकर ‘तेज’ शब्द का प्रयोग हुआ है। सूर्य और अग्नि में प्रकाशिका और दाहिका- दोनों शक्तियाँ हैं। चंद्रमा में प्रकाशिका शक्ति तो है, पर उसमें दाहिका शक्ति तिरस्कृत होकर ‘सौम्य शक्ति’ प्रकट हो गयी है, जो कि शीतलता देने वाली है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज