श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
व्याख्या- ‘यष्टव्यमेवेति’- जब मनुष्य-शरीर मिल गया और अपना कर्तव्य करने का अधिकार भी प्राप्त हो गया, तो अपने वर्ण-आश्रम में शास्त्र की आज्ञा के अनुसार यज्ञ करना मात्र मेरा कर्तव्य है। ‘एव इति’- ये दो अव्यय लगाने का तात्पर्य है कि इसके सिवाय दूसरा कोई भाव न रखे अर्थात इस यज्ञ से लोक में और परलोक में मेरे को क्या मिलेगा? इससे मेरे को क्या लाभ होगा?- ऐसा भाव भी न रहे, केवल कर्तव्यमात्र रहे। जब उससे कुछ मिलने की आशा ही नहीं रखनी है, तो फिर (फलेच्छा का त्याग करके) यज्ञ करने की जरूरत ही क्या है?- इसके उत्तर में भगवान कहते हैं- ‘मनः समाधाय’ अर्थात ‘यज्ञ करना हमारा कर्तव्य है’ ऐसे मन को समाधान करके यज्ञ करना चाहिए। ‘अफलाकांक्षिभिः’- मनुष्य फल की इच्छा रखने वाला न हो अर्थात लोक-परलोक में मेरे इस यज्ञ का अमुक फल मिले- ऐसा भाव रखने वाला न हो। ‘यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते’- शास्त्रों में विधि के विषय में जैसी आज्ञा दी गई है, उसके अनुसार ही यज्ञ किया जाए। इस प्रकार से जो यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक होता है- ‘स सात्त्विकः।’ सात्त्विकता का तात्पर्य क्या होता है? अब इस पर थोड़ा विचार करें। ‘यष्टव्यम्’[1]- ‘यज्ञ करना मात्र कर्तव्य है’- ऐसा जब उद्देश्य रहता है, तब उस यज्ञ के साथ अपना संबंध नहीं जुड़ता। परंतु जब कर्ता में ‘वर्तमान में मान, आदर, सत्कार आदि मिलें, मरने के बाद स्वर्गादि लोक मिलें तथा आगे के जन्म में धनादि पदार्थ मिलें’- इस प्रकार की इच्छाएँ होंगी, तब उसका उस यज्ञ के साथ संबंध जुड़ जाएगा। तात्पर्य है कि फल की इच्छा रखने से ही यज्ञ के साथ संबंध जुड़ता है। केवल कर्तव्यमात्र का पालन करने से उससे संबंध नहीं जुड़ता, प्रत्युत उससे संबंध-विच्छेद हो जाता है और (स्वार्थ तथा अभिमान न रहने से) कर्ता की अहंता शुद्ध हो जाती है। इसमें एक बड़ी मार्मिक बात है कि कुछ भी कर्म करने में कर्ता के साथ संबंध रहता है। कर्म कर्ता से अलग नहीं होता। कर्म कर्ता का ही चित्र होता है अर्थात जैसा कर्ता होगा, वैसे ही कर्म होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो करने योग्य है, जो अपनी सामर्थ्य के अनुरूप है, जिसे अवश्यक करना चाहिए और जिसको करने से उद्देश्य की सिद्धि अवश्य होती है, वह ‘कर्तव्य’ होता है। वही कर्तव्य यज्ञ में ‘यष्टव्य’ और दान में ‘दातव्य’ है।
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