श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘आत्मसम्भाविताः’- वे धन, मान, बड़ाई, आदर आदि की दृष्टि से अपने मन से ही अपने-आपको बड़ा मानते हैं, पूज्य समझते हैं कि हमारे समान कोई नहीं है; अतः हमारा पूजन होना चाहिए, हमारा आदर होना चाहिए, हमारी प्रशंसा होनी चाहिए। वर्ण, आश्रम, विद्या, बुद्धि, पद, अधिकार, योग्यता आदि में हम सब तरह से श्रेष्ठ हैं; अतः सब लोगों को हमारे अनुकूल चलना चाहिए। ‘स्तब्धाः’- वे किसी के सामने नम्र नहीं होते, नमते नहीं। कोई संत-महात्मा या अवतारी भगवान ही सामने क्यों ने आ जाएं, तो भी वे उनको नमस्कार नहीं करेंगे। वे तो अपने-आपको ही ऊँचा समझते हैं, फिर किसके सामने नम्रता करे और किसको नमस्कार करें। कहीं किसी कारण से परवश होकर लोगों के सामने झुकना भी पड़े, तो अभिमानसहित ही झुकेंगे। इस प्रकार उनमें बहुत ज्यादा ऐंठ-अकड़ रहती है। ‘धनमानमदान्विताः’- वे धन और मान के मद से सदा चूर रहते हैं। उनमें धन का, अपने जनों का, जमीन जायदाद और मकान आदि का मद (नशा) होता है। इधर-उधर पहचान हो जाती है, तो उसका भी उनके मन में मद होता है कि हमारी तो बड़े-बड़े मिनिस्टरों तक पहचान है। हमारे पास ऐसी शक्ति है, जिससे चाहे जो प्राप्त कर सकते हैं और चाहे जिसका नाश कर सकते हैं। इस प्रकार धन और मान ही उनका सहारा होता है। इनका ही उन्हें नशा होता है, गरमी होती है। अतः वे इनको ही श्रेष्ठ मानते हैं। ‘यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेन’- वे लोग (पंद्रहवें श्लोक में आये ‘यक्ष्ये दास्यामि’ पदों के अनुसार) दम्भपूर्वक नाममात्र के यज्ञ करते हैं। वे केवल लोगों को दिखाने के लिए और अपनी महिमा के लिए ही यज्ञ करते हैं, तथा इस भाव से करते हैं कि दूसरों पर असर पड़ जाए और वे हमारे प्रभाव से प्रभावित हो जाएँ; उनकी आँख खुल जाए कि हम क्या हैं, उन्हें चेत हो जाए आदि। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज