श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः । अर्थ- हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात मार्ग में शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्ति को प्राप्त होते हैं अर्थात पीछे लौटकर नहीं आते और[1] आवृत्ति को प्राप्त होते हैं अर्थात पीछे लौटकर आते हैं, उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को मैं कहूँगा। व्याख्या- [जीवित अवस्था में ही बंधन से छूटने को ‘सद्योमुक्ति’ कहते हैं अर्थात जिनको यहाँ ही भगवत्प्राप्ति हो गयी, भगवान में अनन्यभक्ति हो गयी, अनन्यप्रेम हो गया, वे यहाँ ही परम संसिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे जो साधक किसी सूक्ष्म वासना के कारण ब्रह्मलोक में जाकर क्रमशः ब्रह्मा जी के साथ मुक्त हो जाते हैं, उनकी मुक्ति को ‘क्रममुक्ति’ कहते हैं, जो केवल सुख भोगने के लिए ब्रह्मलोक आदि लोकों में जाते हैं, वे फिर लौटकर आते हैं। इसको ‘पुनरावृत्ति’ कहते हैं। सद्योमुक्ति का वर्णन तो पंद्रहवें श्लोक में हो गया, पर क्रममुक्ति और पुनरावृत्ति का वर्णन करना बाकी रह गया। अतः इन दोनों का वर्णन करने के लिए भगवान आगे का प्रकरण आरंभ करते हैं।] ‘यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं......वक्ष्यामि भरतर्षभ’- पीछे छूटे हुए विषय का लक्ष्य कराने के लिए यहाँ ‘तु’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। ऊर्ध्वगति वालों को कालाभिमानी देवता जिस मार्ग से ले जाता है, उस मार्ग का वाचक यहाँ ‘काल’ शब्द लेना चाहिए; क्योंकि आगे छब्बीसवें और सत्ताईसवें श्लोक में इसी ‘काल’ शब्द को मार्ग के पर्यायवाची ‘गति’ और ‘सृति’ शब्दों से कहा गया है। ‘अनावृत्तिमावृत्तिम्’ कहने का तात्पर्य है कि अनावृत ज्ञान वाले पुरुष ही अनावृत्ति में जाते हैं और आवृत ज्ञान वाले पुरुष ही आवृत्ति में जाते हैं। जो सांसारिक पदार्थों और भोगों से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो गए हैं, वे अनावृत्त ज्ञान वाले हैं अर्थात उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ नहीं है, प्रत्युत जाग्रत है। इसलिए वे अनावृत्ति के मार्ग में जाते हैं, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता। निष्कामभाव होने से उनके मार्ग में प्रकाश अर्थात विवेक की मुख्यता रहती है। सांसारिक पदार्थों और भोगों में आसक्ति, कामना और ममता रखने वाले जो पुरुष अपने स्वरूप से तथा परमात्मा से विमुख हो गए हैं वे आवृत्त ज्ञान वाले हैं अर्थात उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ है। इसलिए वे आवृत्ति के मार्ग में जाते हैं, जहाँ से फिर लौटकर जन्म-मरण के चक्र में आना पड़ता है। सकाम भाव होने से उनके मार्ग में अंधकार अर्थात अविवेक की मुख्यता रहती है। जिनका परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य है, पर भीतर से आंशिक वासना रहने से जो अंतकाल में विचलित मना होकर पुण्यकारी लोकों (भोग-भूमियों) को प्राप्त करके फिर वहाँ से लौटकर आते हैं, ऐसे योगभ्रष्टों को भी आवृत्ति वालों के मार्ग के अंतर्गत लेने के लिए यहाँ ‘चैव’ पद आया है। यहाँ ‘योगिनः’ पद निष्काम और सकाम- दोनों पुरुषों के लिए आया है। संबंध- अब उन दोनों में से पहले शुक्लमार्ग का अर्थात लौटकर न आने वालों के मार्ग का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिस मार्ग में गए हुए
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