श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय अवतरिणका पाँचवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने यह बात पूछी थी कि सांख्ययोग और कर्मयोग- इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है? इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि ये दोनों ही कल्याण करने वाले हैं; परंतु कर्मसंन्यास और कर्मयोग- इन दोनों में कर्मयोग श्रेष्ठ है- ‘तस्योस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’।[1] दोनों कल्याण करने वाले कैसे हैं- इसका वर्णन भगवान ने पाँचवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक तक किया। फिर सांख्ययोग तथा कर्मयोग के लिये उपयोगी और स्तंत्रता से कल्याण करने वाले ध्यानयोग का संक्षेप से दो श्लोकों में वर्णन किया तथा अंत में अपनी ही तरफ से भक्ति की निष्ठा बताकर पाँचवें अध्याय के विषय का उपसंहार किया। अब पुनः कर्मयोग की श्रेष्ठता बताने के लिये भगवान छठे अध्याय का विषय आरंभ करते हैं। श्रीभगवानुवाच व्याख्या- ‘अनाश्रितः कर्मफलम्’- इन पदों का आशय यह प्रतीत होता है कि मनुष्य को किसी उत्पत्ति विनाशशील वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदि का आश्रय नहीं रखना चाहिये। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्मा का अंश होने से नित्य-निरंतर रहने वाला है और यह जिन वस्तु, व्यक्ति आदि का आश्रय लेता है, वे उत्पत्ति विनाशशील तथा प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाले हैं, वे तो परिवर्तनशील होने के कारण नष्ट हो जाते हैं और यह[2] रीता-का-रीता रह जाता है। केवल रीता ही नहीं रहता, प्रत्युत उनके राग को पकड़े रहता है। जब तक यह उनके राग को पकड़े रहता है, तब तक इसका कल्याण नहीं होता अर्थात वह राग उसके ऊँच नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बन जाता है।[3] अगर यह उस राग का त्याग कर दे तो यह स्वतः मुक्त हो जायगा। वास्तव में यह स्वतः मुक्त है ही, केवल राग के कारण उस मुक्ति का अनुभव नहीं होता। अतः भगवान कहते हैं कि मनुष्य कर्मफल का आश्रय न रखकर कर्तव्य कर्म करे। कर्मफल के आश्रय का त्याग करने वाला तो नैष्ठि की शांति को प्राप्त होता है, पर कर्मफल का आश्रय रखने वाला बँध जाता है[4] स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीनों शरीर ‘कर्मफल’ हैं। इन तीनों में से किसी का भी आश्रय न लेकर इनको सबके हित में लगाना चाहिये। जैसे, स्थूल शरीर से क्रियाओं और पदार्थों को संसार का ही मानकर उनका उपयोग संसार की सेवा[5] में करे, सूक्ष्मशरीर से दूसरों का हित कैसे हो, सब सुखी कैसे हो, सबका उद्धार कैसे हो- ऐसा चिंतन करें; और कारण शरीर से होने वाली स्थिरता[6] का भी फल संसार के हित के लिये अर्पण करे। कारण कि ये तीनों शरीर अपने[7] नहीं है और अपने लिये भी नहीं है, प्रत्युत संसार के और संसार की सेवा के लिये ही हैं। इन तीनों को संसार के साथ अभिन्नता और अपने स्वरूप के साथ भिन्नता है। इस तरह इन तीनों का आश्रय न लेना ही ‘कर्मफल का आश्रय न लेना’ है और इन तीनों से केवल संसार के हित के लिये कर्म करना ही ‘कर्तव्य-कर्म करना’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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