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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय एक तो कर्म करना चाहिये और दूसरा कर्म करने की विद्या आनी चाहिये। जब मनुष्य कर्म तो करता है, पर कर्म करने की विद्या नहीं जानता अथवा कर्म करने की विद्या तो जानता है, पर कर्म नहींं करता, तब उसके द्वारा सुचारू रूप से कर्म नहीं होते। इसलिये भगवान ने तीसरे अध्याय में कर्म करने पर विशेष जोर दिया है, पर साथ में कर्मों को जानने की बात भी कही है; और चौथे अध्याय में कर्मों का तत्त्व जानने पर विशेष जोर दिया है, और साथ में कर्म करने की बात भी कही है। पांचवें अध्याय में यद्यपि कर्मयोग और सांख्ययोग- दोनों के द्वारा कल्याण होने की बात आयी है, तथापि भगवान ने सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया है। इस अध्याय में भगवान ने क्रमपूर्वक कर्मयोग और सांख्ययोग का वर्णन करके फिर संक्षेप से ध्यान योग्य का वर्णन किया और अंत में संक्षेप से भक्तियोग का वर्णन किया, जो भगवान का मुख्य ध्येय है। ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगाशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यास योगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ।। 5 ।। कर्मयोग और सांख्ययोग- दोनों का वर्णन होने से इस पाँचवें अध्याय का नाम ‘कर्मसंन्यास योग’ है।
इस अध्याय के उनतीस श्लोकों में से- तेरहवें और उनतीसवें श्लोक के प्रथम चरण में ‘नगण’ प्रयुक्त होने से ‘न-विपुला’; और बाइसवें श्लोक के तृतीय चरण में ‘मगण’ प्रयुक्त होने से ‘म-विपुला’ संज्ञा वाले छंद हैं। शेष छब्बीस श्लोक ठीक ‘पथ्यावक्त्र’ अनुष्टुप् छंद के लक्षणों से युक्त हैं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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