श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । अर्थ- अर्जुन बोले- केवल मेरे पर कृपा करने के लिए ही आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मतत्त्व जानने का वचन कहा, उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है। व्याख्या- ‘मदनुग्रहाय’- मेरा भजन करने वालों पर कृपा करके मैं स्वयं उनके अज्ञानजन्य अंधकार का नाश कर देता हूँ[2]- यह बात भगवान ने केवल कृपा-परवश होकर कही। इस बात का अर्जुन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, जिससे अर्जुन भगवान की स्तुति करने लगे।[3] ऐसी स्तुति उन्होंने पहले गीता में कहीं नहीं की। उसी का लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ कहते हैं कि केवल मेरे पर कृपा करने के लिए ही आपने ऐसी बात कही है।[4] ‘परमं गुह्यम्’- अपनी प्रधान-प्रधान विभूतियों को कहने के बाद भगवान ने दसवें अध्याय के अंत में अपनी ओर से कहा कि मैं अपनी किसी अंश में संपूर्ण जगत को, अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों को व्याप्त करके स्थित हूँ[5] अर्थात भगवान ने खुद अपना परिचय दिया कि मैं कैसा हूँ। इसी बात को अर्जुन परम गोपनीय मानते हैं। ‘अध्यात्मसंज्ञितम्’- दसवें अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान ने कहा था कि जो मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है अर्थात संपूर्ण विभूतियों के मूल में भगवान ही हैं और संपूर्ण विभूतियाँ भगवान की सामर्थ्य से ही प्रकट होती हैं तथा अंत में भगवान में ही लीन हो जाती हैं- ऐसा तत्त्व से जानता है, वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है। इसी बात को अर्जुन अध्यात्मसंज्ञित मान रहे हैं[6]। ‘यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम’- संपूर्ण जगत भगवान के किसी एक अंश में है- इस बात पर पहले अर्जुन की दृष्टि नहीं थी और वे स्वयं इस बात को जानते भी नहीं थे, यही उनका मोह था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान की कृपा का अनुभव करके अर्जुन भावविभोर हो उठे और कृपा का रहस्य प्रकट करने के लिए जब अत्यधिक प्रसन्नता से बोले, तब नियम का खयाल न रहने से यह श्लोक तैंतीस अक्षरों का आया है, जबकि गीता भर में अनुष्टुप् छन्द वाले श्लोक बत्तीस अक्षरों के ही आए हैं। तात्पर्य है कि अत्यधिक प्रसन्नता होने पर नियम का ध्यान नहीं रहता।
- ↑ गीता 10:11
- ↑ गीता 10:12-15
- ↑ ऐसे तो पहले अध्याय से लेकर यहाँ तक भगवान ने जो कुछ कहा है वह सब कृपा-परवश होकर ही कहा है। वास्तव में भगवान की संपूर्ण क्रियाओं में कृपा भरी रहती है, पर मनुष्य उसे पहचानता नहीं। भगवान की कृपा को पहचानने पर भगवत्त्व का अनुभव बहुत सुगमता से और शीघ्रता से हो जाता है। अर्जुन का लक्ष्य भी जब भगवत्कृपा की ओर जाता है, तब वे विभोर होकर कह उठते हैं कि आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया।
- ↑ गीता 10:42
- ↑ भगवान ने अभी तक भक्ति की जितनी बातें कही हैं, वे सब की सब परम गोपनीय अध्यात्म उपदेश हैं।
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