श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ।।19।।
अर्थ- जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से पर अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या- ‘नान्यं गुणेभ्यः ......... मद्भावं सोऽधिगच्छति’- गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात संपूर्ण क्रियाएँ गुणों से ही हो रही हैं, संपूर्ण परिवर्तन गुणों में ही हो रहा है। तात्पर्य है कि संपूर्ण क्रियाओं और परिवर्तन में गुण ही कारण हैं, और कोई कारण नहीं है। वे गुण जिससे प्रकाशित होते हैं, वह तत्त्व गुणों से पर है। गुणों से पर होने से वह कभी गुणों से लिप्त नहीं होता अर्थात गुणों और क्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं पड़ता।
ऐसे उस तत्त्व को जो विचार-कुशल साधक जान लेता है अर्थात विवेक के द्वारा अपने-आपको गुणों से पर, असंबंद्ध, निर्लिप्त अनुभव कर लेता है कि गुणों के साथ अपना संबन्ध न कभी हुआ है, न है, न होगा और न हो ही सकता है। कारण कि गुण परिवर्तनशील हैं और स्वयं में कभी परिवर्तन होता ही नहीं। वह फिर मेरे भाव को, मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि वह जो भूल से गुणों के साथ अपना संबंध मानता था, वह मान्यता मिट जाती है और मेरे साथ उसका जो स्वतः सिद्ध संबंध है, वह ज्यों-का-ज्यों रह जाता है।
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