श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
अर्थ- सूर्य में आया हुआ जो तेज संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है और जो तेज चंद्रमा में है तथा जो तेज अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान। व्याख्या- [प्रभाव और महत्त्व की ओर आकर्षित होना जीव का स्वभाव है। प्राकृत पदार्थों के संबंध से जीव प्राकृत पदार्थों के प्रभाव से प्रभावित हो जाता है। कारण यह है कि प्रकृति में स्थित होने के कारण जीव को प्राकृत पदार्थों (शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि-) का महत्त्व दीखने लगता है, भगवान का नहीं। अतः जीव पर पड़े प्राकृत पदार्थों का प्रभाव हटाने के लिए भगवान अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन प्राकृत पदार्थों में जो प्रभाव और महत्त्व देखने में आता है, वस्तुः (मूल में) मेरा ही है, उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं।] ‘यदादित्यगतं तेजो जगद्भावसयतेऽखिलम्’- जैसे भगवान ने[1] कामनाओं को ‘मनोगतान्’ बताया है, ऐसे ही यहाँ तेज को ‘आदित्यगतम्’ बताते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे मन में स्थित कामनाएँ मन का धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक हैं, ऐसे ही सूर्य में स्थित तेज सूर्य का धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक है अर्थात वह तेज सूर्य का अपना न होकर (भगवान से) आया हुआ है। सूर्य का तेज (प्रकाश) इतना महान है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड उससे प्रकाशित होता है। ऐसा वह तेज सूर्य का दीखने पर भी वास्तव में भगवान का ही है। इसलिए सूर्य भगवान को या उनके परमधाम को प्रकाशित नहीं कर सकता। महर्षि पतंजलि कहते हैं- ‘ईश्वर सबके पूर्वजों का भी गुरु है; क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है।’ संपूर्ण भौतिक जगत में सूर्य के समान प्रत्यक्ष प्रभावशाली पदार्थ कोई नहीं है। चंद्र, अग्नि, तारे, विद्युत आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं, वे सभी सूर्य से ही प्रकाश पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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