श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
अवतरणिका श्री भगवान ने चौथे अध्याय के तैंतीसवें और चौंतीसवें श्लोक में ज्ञानयोग की श्रेष्ठता बताते हुए ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रेरणा की। फिर ज्ञान की महिमा का वर्णन किया। उसके बाद पाँचवें अध्याय के सौलहवें, सत्रहवें एवं चौबीसवें से छब्बीसवें श्लोक तक, छठे अध्याय के चौबीसवें से अट्ठाईसवें श्लोक तक और आठवें अध्याय के ग्यारहवें से तेरहवें श्लोक तक निर्गुण-निराकार की उपासना का महत्त्व बताया। छठे अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में साधक भक्त की महिमा बतायी और सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक जगह-जगह ‘अहम्’, ‘माम्’ आदि पदों द्वारा विशेष रूप से सगुण-साकार एवं सगुण-निराकार की उपासना का महत्त्व बताया तथा अंत में ग्यारहवें अध्याय के चौवनवें-पचपनवें श्लोकों में अनन्य भक्ति की महिमा एवं फलसहित उसके स्वरूप का वर्णन किया[1]। उपर्युक्त वर्णन से अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि सगुण भगवान की उपासना करने वाले और निर्गुण ब्रह्मा की उपासना करने वाले- दोनों में से कौन से उपासक श्रेष्ठ हैं। इसी जिज्ञासा को लेकर अर्जुन प्रश्न करते हैं- अर्जुन उवाच एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । अर्थ- जो भक्त इस प्रकार निरंतर आप में लगे रहकर आप (सगुण भगवान) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकार की ही उपासना करते हैं, उनमें उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? व्याख्या- ‘एवं सततयुक्ता ये भक्ताः’- ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में भगवान ने ‘यः’ और ‘सः’ पद जिस साधक के लिए प्रयुक्त किए हैं, उसी साधक के लिए अर्थात सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले सब साधकों के लिए यहाँ ‘ये भक्ताः’ पद आये हैं। यहाँ ‘एवम्’ पद से ग्यारहवें अध्याय के पचनवें श्लोक का निर्देश किया गया है। ‘मैं भगवान का ही हूँ’- इस प्रकार भगवान का होकर रहना ही ‘सततयुक्त’ होना है। भगवान में पूर्ण श्रद्धा रखने वाले साधक भक्तों का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होता है। अतः प्रत्येक (पारमार्थिक- भगवत्संबंधी जप-ध्यानादि अथवा व्यावहारिक- शारीरिक और आजीविका-संबंधी) क्रिया में उनका संबंध नित्य-निरंतर भगवान से बना रहता है। ‘सततयुक्ताः’ पद ऐसे ही साधक भक्तों का वाचक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
इस अध्याय से पहले साकार भगवान के उपासकों का वर्णन जिन श्लोकों में जिन पदों के द्वारा हुआ है, उनका परिचय इस प्रकार है- अध्याय श्लोक पद अर्थ 6 47 ‘मद्गतेनान्तरात्मना.......श्रद्धावान्भजते यो माम्’ जो श्रद्धावान भक्त मेरे में तल्लीन हुए मन से मेरा भजन करता है। 7 1 ‘मय्यासक्तमनाः.......योगं युञ्जन्मदाश्रयः’ मुझमें अनन्य प्रेम से आसक्त मन वाला और मेरे आश्रित होकर भक्तियों में लगा हुआ है। 7 29-30 ‘मामाश्रित्य यतन्ति’, ‘युक्तचेतसः’ युक्त चित्त वाले पुरुष मेरे शरण होकर साधन करते हैं। 8 7 ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ मेरे में अर्पित किए हुए मन-बुद्धि वाला। 8 14 ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ मेरे में अनन्यचित्त होकर जो नित्य निरंतर मेरा स्मरण करता है। 9 14 ‘सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः’ दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं। 9 22 ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते’ अनन्यभाव से जो भक्तजन मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं। 9 30 ‘भजते मामनन्यभाक्’ अनन्यभाव से मेरा भजन करता है। 10 9 ‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्’ मेरे में मन लगाए रखने वाले और मेरे में प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए। 11 55 ‘मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः’ मेरे लिए ही संपूर्ण कर्तव्य-कर्म करने वाला, मेरे परायण और मेरा भक्त है। 4 34 ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया’ उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और सरलतापूर्वक प्रश्न करने से। 4 39 ‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। 5 8 ‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्यते तत्त्ववित्’ तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी निःसंदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ। 5 13 ‘नैव कुर्वत्र कारयन्’ कर्मों को न करता हुआ, न करवाता हुआ। 5 24-26 ‘ब्रह्मनिर्वाणम्’ निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है। 6 25 ‘आत्मसंस्थं मनः कृत्वा’ मन को परमात्मा में स्थित करके। 8 11 ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति’ वेदों के ज्ञाता पुरुष जिस परमपद को ‘अक्षर’ कहते हैं। 8 13 ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहारन्मामनुस्मरन्’ ऊँ- इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण और मुझ निर्गुण ब्रह्म का स्मरण करता हुआ। 9 15 ‘ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये जयन्तो मामुपासते’ ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज