श्रीमद्भगवद्गीता -रामसुखदास अध्याय 12 पृ. 850

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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय


अवतरणिका

श्री भगवान ने चौथे अध्याय के तैंतीसवें और चौंतीसवें श्लोक में ज्ञानयोग की श्रेष्ठता बताते हुए ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रेरणा की। फिर ज्ञान की महिमा का वर्णन किया। उसके बाद पाँचवें अध्याय के सौलहवें, सत्रहवें एवं चौबीसवें से छब्बीसवें श्लोक तक, छठे अध्याय के चौबीसवें से अट्ठाईसवें श्लोक तक और आठवें अध्याय के ग्यारहवें से तेरहवें श्लोक तक निर्गुण-निराकार की उपासना का महत्त्व बताया। छठे अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में साधक भक्त की महिमा बतायी और सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक जगह-जगह ‘अहम्’, ‘माम्’ आदि पदों द्वारा विशेष रूप से सगुण-साकार एवं सगुण-निराकार की उपासना का महत्त्व बताया तथा अंत में ग्यारहवें अध्याय के चौवनवें-पचपनवें श्लोकों में अनन्य भक्ति की महिमा एवं फलसहित उसके स्वरूप का वर्णन किया[1]। उपर्युक्त वर्णन से अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि सगुण भगवान की उपासना करने वाले और निर्गुण ब्रह्मा की उपासना करने वाले- दोनों में से कौन से उपासक श्रेष्ठ हैं। इसी जिज्ञासा को लेकर अर्जुन प्रश्न करते हैं-

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।1।।

अर्थ- जो भक्त इस प्रकार निरंतर आप में लगे रहकर आप (सगुण भगवान) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकार की ही उपासना करते हैं, उनमें उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?

व्याख्या- ‘एवं सततयुक्ता ये भक्ताः’- ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में भगवान ने ‘यः’ और ‘सः’ पद जिस साधक के लिए प्रयुक्त किए हैं, उसी साधक के लिए अर्थात सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले सब साधकों के लिए यहाँ ‘ये भक्ताः’ पद आये हैं। यहाँ ‘एवम्’ पद से ग्यारहवें अध्याय के पचनवें श्लोक का निर्देश किया गया है। ‘मैं भगवान का ही हूँ’- इस प्रकार भगवान का होकर रहना ही ‘सततयुक्त’ होना है।

भगवान में पूर्ण श्रद्धा रखने वाले साधक भक्तों का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होता है। अतः प्रत्येक (पारमार्थिक- भगवत्संबंधी जप-ध्यानादि अथवा व्यावहारिक- शारीरिक और आजीविका-संबंधी) क्रिया में उनका संबंध नित्य-निरंतर भगवान से बना रहता है। ‘सततयुक्ताः’ पद ऐसे ही साधक भक्तों का वाचक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस अध्याय से पहले साकार भगवान के उपासकों का वर्णन जिन श्लोकों में जिन पदों के द्वारा हुआ है, उनका परिचय इस प्रकार है-
    अध्याय श्लोक पद अर्थ
    6 47 ‘मद्गतेनान्तरात्मना.......श्रद्धावान्भजते यो माम्’ जो श्रद्धावान भक्त मेरे में तल्लीन हुए मन से मेरा भजन करता है।
    7 1 ‘मय्यासक्तमनाः.......योगं युञ्जन्मदाश्रयः’ मुझमें अनन्य प्रेम से आसक्त मन वाला और मेरे आश्रित होकर भक्तियों में लगा हुआ है।
    7 29-30 ‘मामाश्रित्य यतन्ति’, ‘युक्तचेतसः’ युक्त चित्त वाले पुरुष मेरे शरण होकर साधन करते हैं।
    8 7 ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ मेरे में अर्पित किए हुए मन-बुद्धि वाला।
    8 14 ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ मेरे में अनन्यचित्त होकर जो नित्य निरंतर मेरा स्मरण करता है।
    9 14 ‘सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः’ दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं।
    9 22 ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते’ अनन्यभाव से जो भक्तजन मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
    9 30 ‘भजते मामनन्यभाक्’ अनन्यभाव से मेरा भजन करता है।
    10 9 ‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्’ मेरे में मन लगाए रखने वाले और मेरे में प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए।
    11 55 ‘मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः’ मेरे लिए ही संपूर्ण कर्तव्य-कर्म करने वाला, मेरे परायण और मेरा भक्त है।
    4 34 ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया’ उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और सरलतापूर्वक प्रश्न करने से।
    4 39 ‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है।
    5 8 ‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्यते तत्त्ववित्’ तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी निःसंदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।
    5 13 ‘नैव कुर्वत्र कारयन्’ कर्मों को न करता हुआ, न करवाता हुआ।
    5 24-26 ‘ब्रह्मनिर्वाणम्’ निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है।
    6 25 ‘आत्मसंस्थं मनः कृत्वा’ मन को परमात्मा में स्थित करके।
    8 11 ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति’ वेदों के ज्ञाता पुरुष जिस परमपद को ‘अक्षर’ कहते हैं।
    8 13 ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहारन्मामनुस्मरन्’ ऊँ- इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण और मुझ निर्गुण ब्रह्म का स्मरण करता हुआ।
    9 15 ‘ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये जयन्तो मामुपासते’ ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं।

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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
श्लोक संख्या विषय पृष्ठ संख्या
प्रथम अध्याय
1-11 पाण्डव और कौरव सेना के मुख्य महारथियों के नामों का वर्णन -
12-19 दोनों पक्षों की सेनाओं के शंख वादन का वर्णन 15
20-27 अर्जुन के द्वारा सेना-निरीक्षण 27
28-47 अर्जुन के द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त वचन कहना तथा संजय द्वारा शोकाविष्ट अर्जुन की अवस्था का वर्णन 39
पहले अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 50
द्वितीय अध्याय
1-10 अर्जुन की कायरता के विषय में संजय द्वारा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वर्णन 1
11-30 सांख्ययोग का वर्णन 17
31-38 क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की आवश्यकता का प्रतिपादन 52
39-53 कर्मयोग का वर्णन 61
54-72 स्थित प्रज्ञ के लक्षणों आदि का वर्णन 81
दूसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 104
तृतीय अध्याय
1-8 सांख्ययोग और कर्मयोग की दृष्टि से कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 105
9-19 यक्ष और सृष्टिचक्र की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 121
20-29 लोक संग्रह के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 147
30-35 राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्म के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा 165
36-43 पापों के कारणभूत 'काम' को मारने की प्रेरणा 189
तीसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 210
चतुर्थ अध्याय
1-15 कर्मयोग की परम्परा और भगवान के जन्मों तथा कर्मों की दिव्यता का वर्णन 211
16-32 कर्मों के तत्त्व का और तदनुसार यज्ञों का वर्णन 256
33-42 ज्ञानयोग और कर्मयोग की प्रशंसा तथा प्रेरणा 288
चौथे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 306
पंचम अध्याय
1-6 सांख्यायोग तथा कर्मयोग की एकता का प्रतिपादन और कर्मयोग की प्रंशसा 307
7-12 सांख्ययोग और कर्मयोग के साधन का प्रकार 322
13-26 फल सहित सांख्ययोग का विषय 338
27-29 ध्यान और भक्ति का वर्णन 365
पाँचवे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 370
षष्ठ अध्याय
1-4 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण 371
5-9 आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोग के लक्षण 382
10-15 आसन की विधि और फलसहित सगुण-साकार के ध्यान का वर्णन 397
16-23 नियमों का फल सहित स्वरूप के ध्यान का वर्णन 407
24-28 फलसहित निर्गुण-निराकार के ध्यान का वर्णन 422
29-32 सगुण और निर्गुण के ध्यान-योगियों का अनुभव 432
33-36 मन के विग्रह का विषय 441
37-47 योगभ्रष्ट की गति का वर्णन और भक्ति योगी की महिमा 450
छठे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 473
सप्तम अध्याय
1-7 भगवान के द्वारा समग्ररूप के वर्णन की प्रतिज्ञा करना तथा अपरा-परा प्रकतियों के संयोग से प्राणियों की उतपत्ति बताकर अपने को सबका मूल कारण बताना 474
8-12 कारण रूप से भगवान की विभूतियों का वर्णन 496
13-19 भगवान के शरण होने वालों का और शरण न होने वालों का वर्णन 508
20-23 अन्य देवताओं की उपासनाओं का फलसहित वर्णन 538
24-30 भगवान के प्रभाव को जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की प्रशंसा तथा भगवान के समरूप का वर्णन 544
सातवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 566
अष्टम अध्याय
1-7 अर्जुन के सात प्रश्न और भगवान के द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब के समय में अपना स्मरण करने की आज्ञा देना 567
8-16 सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार की उपासना फलसहित वर्णन 587
17-22 ब्रह्मलोक तक की अवधिका और भगवान की महत्ता तथा भक्ति का वर्णन 601
23-28 शुक्ल और कृष्ण गति का वर्णन उसको जानने वाले योगी की महिमा 609
आठवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 619
नवम अध्याय
1-6 प्रभाव सहित विज्ञान का वर्णन 621
7-10 महासर्ग और महाप्रलय का वर्णन 638
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों का कथन तथा दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले भक्तों के भजन का वर्णन 645
16-19 कार्य-कारण रूप से भगवत्स्वरूप विभूतियों का वर्णन 654
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फलसहित वर्णन 658
पदार्थों और क्रियाओं को भगवदर्पण करने का फल बताकर भक्ति के अधिकारियों का और भक्ति का वर्णन 669
नवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 704
दशम अध्याय
1-7 भगवान की विभूति और योग का कथन तथा उनको जानने की महिमा 705
8-11 फलसहित भगवद्भभक्ति और भगवत्कृपा का प्रभाव 719
12-18 अर्जुन के द्वारा भगवान की स्तुति और योग तथा विभूतियों को कहने के लिये प्रार्थना 728
19-42 भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योग का वर्णन 735
दसवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 769
एकादश अध्याय
1-8 विराट्‍रूप दिखाने के लिये अर्जुन की प्रार्थन और भगवान के द्वारा अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान करना 771
9-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विराट्‍ रूप का वर्णन 783
15-31 अर्जुन के द्वारा विराट् रूप को देखना और उसकी स्तुति करना 789
32-35 भगवान के द्वारा अपने अत्युग्र विराट रूप का परिचय और युद्ध की आज्ञा 809
36-46 अर्जुन के द्वारा विराटरूप भगवान की स्तुति-प्रार्थना 817
47-50 भगवान के द्वारा विराटरूप के दर्शन की दुर्लभता बताना और अर्जुन को आश्वासन देना 831
51-55 भगवान के द्वारा चतुर्भुज रूप की महत्ता और उसके दर्शन का उपाय बताना 839
ग्यारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 848
द्वादश अध्याय
1-12 सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता का निर्णय और भगत्प्राप्ति के चार साधनों का वर्णन 850
13-20 सिद्ध भक्तों के उन्तालीस लक्षणों का वर्णन 892
बारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 918
त्रयोदश अध्याय
1-18 क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचना 920
19-34 ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विवेचन 967
तेरहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 992
चतुर्दश अध्याय
1-4 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति 993
5-18 सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों का विवेचन 999
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षण 1028
चौदहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1044
पंचदश अध्याय
1-6 संसार का वृक्ष तथा उसका छेदन करके भगवान के शरण होने का और भगवद्धाम का वर्णन 1045
7-11 जीवात्मा का स्वरूप तथा उसे जानने वाले और न जानने वाले का वर्णन 1071
12-15 भगवान के प्रभाव का वर्णन 1096
16-20 क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन तथा अध्याय का उपसंहार 1110
पंद्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1122
षोडश अध्याय
1-5 फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्ति का वर्णन 1123
6-8 सत्कर्मों से विमुख हुए आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों की मान्याताओं का कथन 1164
9-16 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुराचारों और मनोरथों का फलसहित वर्णन 1173
17-20 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुर्भाव और दुर्गति का वर्णन 1187
21-24 आसुरी सम्पत्ति के मूलभूत दोष काम, क्रोध और लोभ से रहित होकर शास्त्र विधि के अनुसार कर्म करने की प्रेरणा 1197
सोलहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1204
सप्तदश अध्याय
1-6 तीन प्रकार की श्रद्धा का और आसुर निश्चय वाले मनुष्यों का वर्णन 1205
7-10 सात्त्विक, राजस और तामस आहारी की रुचि का वर्णन 1218
11-22 यज्ञ, तप और दान के तीन-तीन भेदों का वर्णन 1230
23-28 'ॐ तत्सत्' के प्रयोग की व्याख्या और असत्- कर्म का वर्णन 1254
सत्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1263
अष्टादश अध्याय
1-12 सन्यास के विषय में मतान्तर और कर्मयोग का वर्णन 1264
13-40 सांख्ययोग का वर्णन 1310
41-48 कर्मयोग का भक्तिसहित वर्णन 1364
49-55 सांख्ययोग का वर्णन 1408
56-66 भगवद्भभक्ति का वर्णन 1418
67-68 श्रीमद्भगवदद्गीता की महिमा 1490
अठारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1523
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति 1524
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