श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
व्याख्या- ‘कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः’- उन-उन अर्थात इस लोक के और परलोक के भोगों की कामनाओं से जिनका ज्ञान ढक गया है, आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए जो विवेकयुक्त मनुष्य शरीर मिला है, उस शरीर में आकर परमात्मा की प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओं की पूर्ति करने में ही लगे रहते हैं। संयोगजन्य सुख की इच्छा को कामना कहते हैं। कामना दो तरह की होती है- यहाँ के भोग भोगने के लिए धन-संग्रह की कामना और स्वर्गादि परलोक के भोग भोगने के लिए पुण्य-संग्रह की कामना। धन संग्रह की कामना दो तरह की होती है- पहली, यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें; चाहे जब, चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें, सुख-आराम से दिन बीतें आदि के लिए अर्थात संयोगजन्य सुख के लिए धन-संग्रह की कामना होती है और दूसरी, मैं धनी हो जाऊँ, धन से मैं बड़ा बन जाऊँ आदि के लिए अर्थात अभिमानजन्य सुख के लिए धन-संग्रह की कामना होती है। ऐसे ही पुण्य-संग्रह की कामना भी दो तरह की होती है- पहली, यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी, परलोक में मेरे को भोग मिलें। इन सभी कामनाओं से सत्-असत् नित्य-अनित्य, सार-असार, बंध-मोक्ष आदि का विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होने से वे यह समझ ही नहीं पाते कि जिन पदार्थों की हम कामना कर रहे हैं, वे पदार्थ हमारे साथ कब तक रहेंगे और हम उन पदार्थों के साथ कब तक रहेंगे? ‘प्रकृत्या नियताः स्वया’[2]- कामनाओं के कारण विवेक ढका जाने से वे अपनी प्रकृति से नियंत्रित रहते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश रहते हैं। यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द अर्थात अपने स्वभाव के परवश रहते हैं। यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द व्यक्तिगत स्वभाव का वाचक है, समष्टि प्रकृति का वाचक नहीं। यह व्यक्तिगत स्वभाव सब में मुख्य होता है- ‘स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते।’ अतः व्यक्तिगत स्वभाव को कोई छोड़ नहीं सकता- ‘या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते।’ परंतु इस स्वभाव में जो दोष है, उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है, अगर उन दोषों को मनुष्य छोड़ नहीं सकता, तो फिर मनुष्य जन्म की महिमा ही क्या हुई? मनुष्य अपने स्वभाव को निर्दोष, शुद्ध बनाने में सर्वथा स्वतंत्र है। परंतु जब तक मनुष्य के भीतर कामना पूर्ति का उद्देश्य रहता है, तब तक वह अपने स्वभाव को सुधार नहीं सकता और तभी तक स्वभाव की प्रबलता और अपनों में निर्बलता दिखती है। परंतु जिसका उद्देश्य कामना मिटाने का हो जाता है, वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) का सुधार कर सकता है अर्थात उसमें प्रकृति की परवशता नहीं रहती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसी अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में वर्णित पुरुषों का ज्ञान तो माया से ढका हुआ है और यहाँ वर्णित पुरुषों का ज्ञान कामना से ढका हुआ है। वहाँ के पुरुष तो कामनापूर्ति के लिए जड़-पदार्थों का आश्रय लेते हैं और यहाँ के पुरुष कामना पूर्ति के लिए देवताओं का आश्रय लेते हैं। वहाँ के पुरुष दुष्टता के कारण नरकों में आते हैं और यहाँ के पुरुष कामना के कारण बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।
- ↑ यहाँ जो 'प्रकृत्या नियताः स्वया' कहा है, इसी को सत्रहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘यो यच्छृद्धः स एव सः’ कहा है। ‘स्वया’ कहने का तात्पर्य है कि अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार सबकी कामनाएँ भी अलग-अलग होती हैं।
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