श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् । अर्थ- क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषद मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य, पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ। व्याख्या- [अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वास के अनुसार किसी को भी साक्षात परमात्मा का स्वरूप मानकर उसके साथ संबंध जोड़ा जाए तो वास्तव में यह संबंध सत् के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धि में किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञान के द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि में एक परमात्मातत्त्व को ही जानता है। परमात्मा के सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदि की किञ्चिन्मात्र भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है- इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान विराट रूप से अनेक रूपों में प्रकट हो रहे हैं; अतः सब कुछ भगवान ही भगवान हैं- इसमें अपने को किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिए। कारण कि ‘यह सब भगवान कैसे हो सकते हैं?’ यह संदेह साधक को वास्तविक तत्त्व से, मुक्ति से वंचित कर देता है और महान आफत फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़ता से मान लें कि कार्य-कारण रूप से स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और मानने में आता है, वह सब केवल भगवान ही हैं। इसी कार्य-कारण रूप से भगवान की सर्वव्यापकता का वर्णन सोलहवें से उन्नीसवें श्लोक तक किया गया है।] ‘अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्’- जो वैदिक रीति से किया जाए, वह ‘क्रतु’ होता है। वह क्रतु मैं ही हूँ। जो स्मार्त्त (पौराणिक) रीति से किया जाए, वह ‘यज्ञ’ होता है, जिसको पञ्चमहायज्ञ आदि स्मार्त्त-कर्म कहते हैं। वह यज्ञ मैं हूँ। पितरों के लिए जो अन्न अर्पण किया जाता है, उसको स्वधा कहते हैं। वह स्वधा मैं ही हूँ। उन क्रतु, यज्ञ और स्वधा के लिए आवश्यक जो शाकल्य है अर्थात वनस्पतियाँ हैं, बूटियाँ हैं, तिल, जौ, छुहारा आदि औषध है, वह औषध भी मैं ही हूँ। ‘मंत्रोहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्’- जिस मंत्र से क्रतु, यज्ञ और स्वधा किए जाते हैं, वह मंत्र भी मैं ही हूँ। यज्ञ आदि के लिए गो-घृत आवश्यक होता है, वह घृत भी मैं ही हूँ। जिस आह्वनीय अग्नि में होम किया जाता है, वह अग्नि भी मैं ही हूँ और हवन करने की क्रिया भी मैं ही हूँ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सातवें अध्याय से बारहवें अध्याय तक के इस मध्यम षट्क में भगवान ने अपनी भक्ति का (उपासना का) वर्णन किया है और उसमें ‘अस्मत्’ अर्थात ‘अहम्’, ‘मम्’, ‘मया’, ‘मत्’ आदि शब्दों का प्रयोग किया है। यहाँ सोलहवें श्लोक में तो ‘अस्मत्’ अर्थात ‘अहम्’ शब्द का प्रयोग आठ बार किया गया है। ‘अहम्’ शब्द का इतना अधिक प्रयोग इस षट्क के दूसरे किसी भी श्लोक में नहीं किया गया है।
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