श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः । अर्त- संजय बोले- हे राजन! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को परम ऐश्वर-रूप दिखाया।[1] व्याख्या- ‘एवमुक्त्वा ततो.........परमं रुपमैश्वरम्’- पूर्वश्लोक में भगवान ने जो यह कहा था कि ‘तू अपने चर्मचक्षुओं से मुझे नहीं देख सकता, इसलिए मैं तेरे को दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरे ईश्वर-संबंधी योग को देख’, उसी का संकेत यहाँ संजय ने ‘एवमुक्त्वा’ पद से किया है। चौथे श्लोक में अर्जुन ने भगवान को ‘योगेश्वर’ कहा और यहाँ संजय भगवान को ‘महायोगेश्वर’ कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान ने अर्जुन की प्रार्थना से बहुत अधिक अपना विश्वरूप दिखाया। भक्त की थोड़ी-सी भी वास्तविक रुचि भगवान की तरफ होने पर भगवान अपनी अपार शक्ति से उसकी पूर्ति कर देते हैं। तीसरे श्लोक में अर्जुन ने जिस रूप के लिए ‘रूपमैश्वरम्’ कहा, उसी रूप के लिए यहाँ संजय ‘परमं रूपमैश्वरम्’ कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान का विश्वरूप बहुत-ही विलक्षण है। संपूर्ण योगों के महान ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा विलक्षण, अलौकिक, अद्भुत विश्वरूप दिखाया, जिसको धैर्यशाली, जितेंद्रिय, शूरवीर और भगवान से प्राप्त दिव्यदृष्टि अर्जुन को दुर्निरीक्ष्य कहना पड़ा[2] और भयभीत होन पड़ा[3], तथा भगवान को भी ‘व्यपेतभीः’ कहकर अर्जुन को आश्वासन देना पड़ा।[4] संबंध- अब संजय भगवान के उस परम ऐश्वर रूप का वर्णन आगे के दो श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संजय को भी वेदव्यास जी महाराज से दिव्यदृष्टि मिली हुई थी, इसलिए अर्जुन के साथ-ही-साथ उन्होंने भी भगवान के विश्वरूप के दर्शन किए थे (गीता 18:77)। अब संजय उसी विश्ववरूप का धृतराष्ट्र से वर्णन करते हैं।
- ↑ गीता 11:17
- ↑ गीता 11:45
- ↑ गीता 11:49
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