श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘कामः क्रोधस्तथा लोभस्त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम्’- भगवान ने पाँचवें श्लोक में कहा था कि दैवी-संपत्ति मोक्ष के लिए और आसुरी-संपत्ति बंधन के लिए हैं। तो वह आसुरी-संपत्ति आती कहाँ से है? जहाँ संसार की कामना होती है। संसार के भोग पदार्थों का संग्रह, मान, बड़ाई, आराम आदि जो अच्छे दीखते हैं, उनमें जो महत्त्वबुद्धि या आकर्षण है, बस, वही मनुष्य को नरकों की तरफ ले जाने वाला है। इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- ये षड्रिपु माने गए हैं। इनमें से कहीं पर तीन का, कहीं पर दो का और कहीं पर एक का कथन किया जाता है, पर वे सब मिले-जुले हैं, एक ही धातु के हैं। इन सबमें ‘काम’ ही मूल है; क्योंकि कामना के कारण ही आदमी बँधता है।[1] तीसरे अध्याय के छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन ने पूछा था कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप का आचरण क्यों करता है? उसके उत्तर में भगवान ने ‘काम’ और ‘क्रोध’- ये दो शत्रु बताये। परंतु उन दोनों में भी ‘एष’ शब्द देकर कामना को ही मुख्य बताया; क्योंकि कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध आता है। यहाँ काम, क्रोध और लोभ- ये तीन शत्रु बताते हैं। तात्पर्य है कि भोगों की तरफ वृत्तियों का होना ‘काम’ है और संग्रह की तरफ वृत्तियों का होना ‘लोभ’ है। जहाँ ‘काम’ शब्द अकेला आता है, वहाँ उसके अंतर्गत ही भोग और संग्रह की इच्छा आती है। परंतु जहाँ ‘काम’ और ‘लोभ’- दोनों स्वतंत्र रूप से आते हैं, वहाँ भोग की इच्छा को लेकर ‘काम’ और संग्रह की इच्छा को लेकर ‘लोभ’ आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर ‘क्रोध’ आता है। जब काम, क्रोध और लोभ- तीनों अधिक बढ़ जाते हैं, तब ‘मोह’ होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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