श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः । अर्थ- जो मनुष्य ब्रह्मा के सहस्र चतुर्युगीपर्यन्त एक दिन को सहस्र चतुर्युगीपर्यन्त एक रात को जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्मा के दिन और रात को जानने वाले हैं। व्याख्या- ‘सहस्रयुगपर्यन्तम्..........तेऽहोरात्रविदो जनाः’- सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि- मृत्युलोक के इन चार युगों को एक चतुर्युगी कहते हैं। ऐसी एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है और एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा जी की एक रात होती है।[1] दिन-रात की इसी गणना के अनुसार सौ वर्षों की ब्रह्मा जी की आयु होती है। ब्रह्मा जी की आयु के सौ वर्ष बीतने पर ब्रह्मा जी परमात्मा में लीन हो जाते हैं और उनका ब्रह्मलोक भी प्रकृति में लीन हो जाता है तथा प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है। कितनी ही बड़ी आयु क्यों न हो, वह भी काल की अवधि वाली ही है। ऊँचे-से-ऊँचे कहे जाने वाले जो भोग हैं, वे भी संयोगजन्य होने से दुःखों के ही कारण हैं- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’[2] और काल की अवधि वाले हैं। केवल भगवान ही कालातीत हैं। इस प्रकार काल के तत्त्व को जानने वाले मनुष्य ब्रह्मलोक तक के दिव्य भोगों के किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व देते हैं। संबंध- ब्रह्मा जी के दिन और रात को लेकर जो सर्ग और प्रलय होते हैं, उसका वर्णन अब आगे के दो श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अत्यन्त सूक्ष्म काल है- परमाणु- परमाणु। दो परमाणुओं का एक अणु और तीन अणुओं का एक त्रसरेणु होता है। झरोखे से आयी सूर्य-किरणों में त्रसरेणु उड़ते हुए दिखते हैं। ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य जितना समय लेता है, उसे त्रुटि कहते हैं। सौ त्रुटियों का एक बेध, तीन वेधों का एक लव, तीन लवों का एक निमेष और तीन निमेषों का एक क्षण होता है। पाँच क्षणों की एक काष्ठा, पंद्रह काष्ठाओं का एक लघु, पंद्रह लघुओं की एक नाड़िका, छः नाड़िकाओं का एक प्रहर और आठ प्रहरों का एक दिन-रात होता है। पंद्रह दिन-रातों का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, छः मासों का एक अयन और दो अयनों का एक वर्ष होता है। इस प्रकार मनुष्यों के एक वर्ष के समान देवताओं की एक दिन-रात है अर्थात मनुष्यों का छः महीनों का उत्तरायण देवताओं का दिन है और छः महीनों का दक्षिणायन देवताओं की रात है। इस तरह देवताओं के समय का परिमाण मनुष्यों के समय के परिमाण से तीन सौ साठ गुणा अधिक माना जाता है। इस हिसाब से मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात, मनुष्यों के तीस वर्ष देवताओं का एक महीना और मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष देवताओं का एक दिव्य वर्ष है। ऐसे ही मनुष्य के सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि- ये चार युग बीतने पर देवताओं का एक दिव्ययुग होता है। अर्थात मनुष्यों के सत्ययुग के सत्रह लाख अट्ठाईस हजार, त्रेता के बारह लाख छियानबे हजार, द्वापर के आठ लाख चौंसठ हजार और कलि को चार लाख बत्तीस हजार- ऐसे कुल तैंतालीस लाख बीस हजार वर्षों के बीतने पर देवताओं का एक दिव्ययुग होता है। इसको ‘महायुग’ और ‘चतुर्युगी’ भी कहते हैं। मनुष्यों और देवताओं का समय का परिमाण तो सूर्य से होता है, पर ब्रह्मा जी के दिन-रात का परिमाण देवताओं के दिव्य युगों से होता है अर्थात देवताओं के एक हजार दिव्ययुगों का (मनुष्यों के चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों का) ब्रह्मा जी का एक दिन होता है और उतने ही दिव्ययुगों की एक रात होती है। ब्रह्मा जी के इसी दिन को ‘कल्प’ या ‘सर्ग’ कहते हैं और रात को ‘प्रलय’ कहते हैं।
- ↑ गीता 5:22
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज