श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । अर्थ- बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभाव को न जानते हुए अव्यक्त[1] मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की तरह ही शरीर धारण करने वाला मानते हैं। व्याख्या- ‘अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं.............ममाव्ययमनुत्तमम्’- जो मनुष्य निर्बुद्धि हैंं और जिनकी मेरे में श्रद्धा-भक्ति नहीं है, वे अल्पमेधा के कारण अर्थात समझ की कमी के कारण मेरे को साधारण मनुष्य की तरह अव्यक्त से व्यक्त होने वाला अर्थात जन्मने मरने वाला मानते हैं। मेरा जो अविनाशी अव्ययभाव है अर्थात जिससे बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता और जो देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि में परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत, सदा एकरूप रहने वाला, निर्मल और असंबद्ध है- ऐसे मेरे अविनाशी भाव को वे नहीं जानते और मेरा अवतार लेने का जो तत्त्व है, उसको नहीं जानते। इसलिए वे मेरे को साधारण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नहीं करते, प्रत्युत देवताओं की उपासना करते हैं। ‘अबुद्धयः’ पद का यह अर्थ नहीं है कि उनमें बुद्धि का अभाव है, प्रत्युत बुद्धि में विवेक रहते हुए भी अर्थात संसार को उत्पत्ति-विनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं। यही उनमें बुद्धिरहितपना है, मूढ़ता है। दूसरा भाव यह है कि कामना को कोई रख नहीं सकता, कामना रह नहीं सकती; क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामनापूर्ति के बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तव में कामना की सत्ता ही नहीं है, फिर भी उसका त्याग नहीं कर सकते- यही अबुद्धिपना है। मेरे स्वरूप को न जानने से वे अन्य देवताओं की उपासना में लग गए और उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की कामना में लग जाने से वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरे से विमुख हो गए। यद्यपि वे मेरे से अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता, तथापि कामना के कारण ज्ञान ढक जाने से वे देवताओं की तरफ खिंच जाते हैं। अगर वे मेरे को जान जाते, तो फिर केवल मेरा ही भजन करते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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