श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्नुरज्यते च ।
व्याख्या- [संसार में यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति अत्यन्त भयभीत हो जाता है, उससे बोला नहीं जाता। अर्जुन भगवान का अत्युग्र रूप देखकर अत्यंत भयभीत हो गए थे। फिर उन्होंने इस (छत्तीसवें) श्लोक से लेकर छियालीसवें श्लोक तक भगवान की स्तुति कैसे की? इसका समाधान यह है कि यद्यपि अर्जुन भगवान के अत्यंत उग्र (भयानक) विश्वरूप को देखकर भयभीत हो रहे थे, तथापि वे भयभीत होने के साथ-साथ हर्षित भी हो रहे थे, जैसा कि अर्जुन ने आगे कहा है- ‘अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे’।[1] इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन इतने भयभीत नहीं हुए थे, जिससे कि वे भगवान की स्तुति भी न कर सकें।] ‘हृषीकेश’- इंद्रियों का नाम ‘हृषीक’ है, और उनके ‘ईश’ अर्थात मालिक भगवान है। यहाँ इस संबोधन का तात्पर्य है कि आप सबके हृदय में विराजमान रहकर इंद्रियाँ, अंतःकरण आदि को सत्ता-स्फूर्ति दने वाले हैं। ‘तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च’- संसार से विमुख होकर आपको प्रसन्न करने के लिए भक्त लोग आपके नामों का, गुणों का कीर्तन करते हैं, आपकी लीला के पद गाते हैं, आपके चरित्रों का कथन और श्रवण करते हैं, तो इससे संपूर्ण जगत हर्षित होता है। तात्पर्य यह है कि संसार की तरफ चलने से तो सबको जलन होती है, परस्पर राग-द्वेष पैदा होते हैं, पर जो आपको सम्मुख होकर आपका भजन कीर्तन करते हैं, उनके द्वारा मात्र जीवों को शांति मिलती है, मात्र जीव प्रसन्न हो जाते हैं! इन जीवों को पता लगे चाहे न लगे, पर ऐसा होता है। जैसे भगवान अवतार लेते हैं तो संपूर्ण स्थावर-जंगम, जड़-चेतन जगत हर्षित हो जाता है अर्थात वृक्ष, लता आदि स्थावर; देवता, मनुष्य, ऋषि, मुनि, किन्नर, गंधर्व, पशु, पक्षी आदि जंगम; नदी, सरोवर आदि जड़- सब-के-सब प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे ही भगवान के नाम, लीला, गुण आदि को कीर्तन का सभी पर असर पड़ता है और सभी हर्षित होते हैं। भगवान के नामों और गुणों का कीर्तन करने से जब मनुष्य हर्षित हो जाते हैं अर्थात उनका मन भगवान में तल्लीन हो जाता है, तब[2] उनका भगवान में अनुराग, प्रेम हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11:45
- ↑ भगवान की तरफ वृत्ति होने से
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज