श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
‘परं भावमजानन्तः’ का तात्पर्य है कि मैं अज रहता हुआ, अविनाशी होता हुआ और लोकों का ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृति को वश में करके योगमाया से प्रकट होता हूँ- इस मेरे परमभाव को बुद्धिहीन मनुष्य नहीं जानते। ‘अनुत्तमम्’ कहने का तात्पर्य है कि पंद्रहवें अध्याय में जिसको क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम बताया है अर्थात जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नहीं, ऐसे मेरे अनुत्तम भाव को वे नहीं जानते। इस चौबीसवें श्लोक का अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि ‘(ये) अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः’ अर्थात जो सदा निराकार रहने वाले मेरे को केवल साकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरूप को नहीं जानते। दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि ‘(ये) व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः’ अर्थात मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हुआ हूँ- ऐसे मेरे को केवल निराकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भाव को नहीं जानते। उपर्युक्त दोनों अर्थों में से कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ मानने पर केवल निराकार को मानने वाले साकार रूप की और साकाररूप के उपासकों की निंदा करेंगे और केवल साकार मानने वाले निराकार रूप की और निराकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे। यह सब एकदेशीयपना ही है। पृथ्वी, जल, तेज आदि जो महाभूत हैं, जो कि विनाशी और विकारी हैं, वे भी दो-दो तरह के होते हैं- स्थूल और सूक्ष्म। जैसे, स्थूल रूप से पृथ्वी साकार है और परमाणु रूप से निराकार है; जल बर्फ, बूँदें, बादल और भापरूप से साकार है और परमाणु रूप से निराकार है; तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाई में रहता है निराकार है और प्रज्वलित होने से साकार है, इत्यादि। इस तरह से भौतिक सृष्टि के भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तव में वह दो नहीं होती। साकार होने पर निराकार में कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होने पर साकार में कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्मा के साकार और निराकार दोनों होने में क्या बाधा है? अर्थात कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं, सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। गीता साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण- दोनों की मानती है। नवें अध्याय के चौथे श्लोक में भगवान ने अपने को ‘अव्यक्तमूर्ति’ कहा है। चौथे अध्याय के छठे श्लोक में भगवान ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ, अविनाशी होता हुआ भी अंतर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होने में साकार होते हुए निराकार होने में भगवान में किञ्चिन्मात्र भी अंतर नहीं आता। ऐसे भगवान के स्वरूप को न जानने के कारण लोग उनके विषय में तरह-तरह की कल्पनाएं किया करते हैं। संबंध- भगवान को साधारण मनुष्य मानने में क्या कारण है? इस पर आगे का श्लोक कहते हैं। |
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