श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय अवतरणिका श्री भगवान ने दूसरे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में अर्जुन से कहा कि ज्ञानयोग में अपने विवेक के अनुसार विचारपूर्वक चलने से जिस समय बुद्धि की प्राप्ति होती है, उसी को तू कर्मयोग के विषय में सुन अर्थात कर्मयोग में निष्काम भावपूर्वक परहितार्थ कर्तव्य कर्म करने से यह समबुद्धि कैसे प्राप्त होती है, इसे सुन- ‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु।’ फिर कर्मयोग का वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार अर्जुन के प्रश्न करने पर स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताकर अध्याय का विषय समाप्त किया है। तीसरे अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने प्रश्न किया कि आपके मत में जब बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तो फिर आप मुझे घोर कर्म[1] में क्यों लगता हैं? इसके उत्तर में भगवान ने चौथे श्लोक से उन्तीसवें श्लोक तक विविध प्रकार से कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए सिद्ध किया कि कर्तव्य कर्म करने से ही समबुद्धि प्राप्त होती है। फिर तीसवें श्लोक में भगवन्निष्ठा के अनुसार कर्तव्य कर्म करने की विशेष विधि बतायी कि विवेकपूर्वक संपूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण करके तथा निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों को करना चाहिये। कर्तव्य-कर्म करने की इस विधि को ‘अपना मत’ कहते हुए भगवान ने इकतीसवें बत्तीसव श्लोकों में अन्वय और व्यतिरेक विधि से अपने इस मत की पुष्टि की तथा पैंतीसवें श्लोक में इस विधि के पालन पर विशेष जोर देते हुए कहा कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः।’ इस पर अर्जुन ने छत्तीसवें श्लोक में प्रश्न किया कि मनुष्य न चाहते हुए भी किससे प्रेरित होकर पाप[2] कर बैठता है? इसके उत्तर में भगवान ने ‘काम’ अर्थात कामना को ही सारे पापों, अनर्थों का हेतु बताकर अंत में कामरूप शत्रु को मार डालने की आज्ञा दी। यद्यपि तीसरे अध्याय के सैंतीसवें श्लोक में भगवान लगातार उपदेश दे रहे हैं, तथापि तैंतालीसवें श्लोक में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर समाप्त होने पर महर्षि वेदव्यास जी तीसरे अध्याय की समाप्ति कर देते हैं और नया[3] अध्याय आरंभ कर देते हैं। इससे ऐसा मालूम देता है कि अर्जुन के प्रश्न का उत्तर समाप्त होने पर भगवान कुछ समय के लिये रुक जाते हैं; फिर दूसरे अध्याय के सैंतालीसवें- अड़तालीसवें श्लोकों से जिस कर्मयोग का विषय चल रहा था, उसी को चौथे अध्याय के पहले श्लोक में ‘इमम्’ पद से पुनः आरंभ करते हैं। अतः चौथा अध्याय तीसरे अध्याय का ही परिशिष्ट माना जाता है। कर्मयोग में दो बातें मुख्य हैं-
अर्जुन कर्मों का स्वरूप से त्याग करना चाहते हैं, इसीलिये तीसरे अध्याय के आरंभ में भगवान से कहते हैं कि आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? अतः तीसरे अध्याय में तो भगवान अनेक प्रकार से कर्तव्य कर्मों के आचरण की आवश्यकतानुसार पर विशेष जोर देते हैं और साथ ही कर्मयोग को समझने की तात्त्विक बातें भी कहते हैं; परंतु इस चौथे अध्याय में कर्मयोग की तात्त्विक बातों को समझने पर विशेष जोर देते हुए कर्तव्य कर्मों का पालन करना आवश्यक बताते हैं। तात्पर्य यह है कि तीसरे और चौथे- दोनों ही अध्यायों में उपर्युक्त दोनों बातें कही गयी हैं; किंतु तीसरे अध्याय में कर्तव्य-कर्मों के आचरण की बात मुख्य है और चौथे अध्याय में कर्तव्य कर्मों के विषय में समझ[4] की बात मुख्य है- ‘तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’।[5] जो कर्मयोग अनादि होते हुए भी इस भूमंडल पर जानने वाले विशेष पुरुष के न रहने से बहुत काल से लुप्तप्राय हो गया था, उसी कर्मयोग का वर्णन पुनः आरंभ करते हुए भगवान पहले तीनों श्लोकों में कर्मयोग की परंपरा बताकर उसकी अनादिता सिद्ध करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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