श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । व्याख्या- ‘अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलित मानसः’- जिसकी साधन में अर्थात जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि में रुचि है, श्रद्धा है और उनको करता भी है, पर अंतःकरण और बहिःकरण वश में न होने से साधन में शिथिलता है, तत्परता नहीं है। ऐसा साधक अंतसमय में संसार में राग रहने से, विषयों का चिंतन होने से अपने साधन से विचलित हो जाए, अपने ध्येय पर स्थिर न रहे तो फिर उसकी क्या गति होती है? ‘अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गति कृष्ण गच्छति’- विषयासक्ति, असावधानी के कारण अंतकाल में जिसका मन विचलित हो गया अर्थात साधना से हट गया और इस कारण उसको योग की संसिद्धि- परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई तो फिर वह किस गति को प्राप्त होता है? तात्पर्य है कि उसने पाप करना तो सर्वथा छोड़ दिया था; अतः वह नरकों में तो जा सकता नहीं और स्वर्ग की कामना न होने से स्वर्ग में भी जा सकता नहीं तथा श्रद्धापूर्वक साधन में लगा हुआ होने से उसका पुनर्जन्म भी हो सकता नहीं। परंतु अंतसमय में परमात्मा की स्मृति न रहने से दूसरा चिन्तन होने से उसको परमात्मा की प्राप्ति भी नहीं हुई, तो फिर उसकी क्या गति होगी? वह कहाँ जाएगा? ‘कृष्ण’ संबोधन देने का तात्पर्य है कि आप संपूर्ण प्राणियों को खींचने वाले हैं और उन प्राणियों की गति-आगति को जानने वाले हैं तथा इन गतियों के विधायक हैं। अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि योग से विचलित हुए साधक को आप किधर खींचेगे? उसको आप कौन सी गति देंगे?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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