श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘एतां दृष्टिमवष्टभ्य’- न कोई कर्तव्य-अकर्तव्य है, न शौचाचार-सदाचार है, न ईश्वर है, न प्रारब्ध है न पाप-पुण्य है, न परलोक है, न किए हुए कर्मों का कोई दंड-विधान है- ऐसी नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेकर वे चलते हैं। ‘नष्टात्मानः’- आत्मा कोई चेतन तत्त्व है, आत्मा की कोई सत्ता है- इस बात को वे मानते ही नहीं। वे तो इस बात को मानते हैं कि जैसे कत्था और चूना मिलने से एक लाली पैदा हो जाती है, ऐसी ही भौतिक तत्त्वों के मिलने से एक चेतनता पैदा हो जाती है। वह चेतन कोई अलग चीज है- यह बात नहीं है। उनकी दृष्टि में जड ही मुख्य होता है। इसलिए वे चेतन-तत्त्व से बिलकुल ही विमुक रहते हैं। चेतन-तत्त्व (आत्मा) से विमुख होने से उनका पतन हो चुका होता है। ‘अल्पबुद्धयः’- उनमें जो विवेक-विचार होता है, वह अत्यंत ही अल्प, तुच्छ होता है। उनकी दृष्टि केवल दृश्य पदार्थों पर अवलम्बित रहती है कि कमाओं, खाओ, पीओ और मौज करो। आगे भविष्य में क्या होगा? परलोक में क्या होगा? ये बातें उनकी बुद्धि में नहीं आतीं। यहाँ अल्पबुद्धि का यह अर्थ नहीं है कि हरेक काम में उनकी बुद्धि काम नहीं करती। सत्य-तत्त्व क्या है? धर्म क्या है? अधर्म क्या है? सदाचार-दुराचार क्या है? और उनका परिणाम क्या होता है? इस विषय में उनकी बुद्धि काम नहीं करती। परंतु धनादि वस्तुओं के संग्रह में उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक उन्नति के विषय में उनकी बुद्धि तुच्छ होती है और सांसारिक भोगों में फँसने के लिए उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज