श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । अर्थ- इन तीनों गुण रूप भावों से मोहित यह सब जगत् इन गुणों से पर अविनाशी मेरे को नहीं जानता। व्याख्या- ‘त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः.......... परमव्ययम्’- सत्त्व, रज और तम- तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपने को सात्त्विक, राजस और तामस मान लेता है अर्थात उनका अपने में आरोप कर लेता है कि ‘मैं सात्त्विक, राजस और तामस हो गया हूँ।’ इस प्रकार तीनों गुणों से मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्मा का अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्मा की तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होने वाली वृत्तियों के साथ अपना संबंध मान लेता है, यही उसका मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होने के कारण वह ‘मेरा परमात्मा के साथ नित्य-संबंध है’- इसको समझ ही नहीं सकता। जहाँ ‘जगत’ शब्द जीवात्मा का वाचक है। निरंतर परिवर्तनशील शरीर के साथ तादात्म्य होने के कारण ही यह जीव ‘जगत’ नाम से कहा जाता है। तात्पर्य है कि शरीर के जन्मने में अपना जन्मना, शरीर के मरने में अपना मरना, शरीर के बीमार होने में अपना बीमार होना और शरीर के स्वस्थ होने में अपना स्वस्थ होना मान लेता है, इसी से यह ‘जगत’ नाम से कहा जाता है। जब तक यह शरीर के साथ अपना तादात्म्य मानेगा, तब तक यह जगत ही रहेगा अर्थात जन्मता-मरता ही रहेगा, कहीं भी स्थायी नहीं रहेगा। गुणों की भगवान के सिवाय अलग सत्ता मानने से ही प्राणी मोहित होते हैं। अगर वे गुणों को भगवत्स्वरूप मानें तो कभी मोहित हो ही नहीं सकते। तीनों गुणों का कार्य जो शरीर है, उस शरीर को चाहे अपना मान लें, चाहे अपने को शरीर मान लें- दोनों ही मान्यताओं से मोह पैदा होता है। शरीर को अपना मानना ‘ममता’ हुई और अपने को शरीर मानना ‘अहंता’ हुई। शरीर के साथ अहंता-ममता करना ही मोहित होना है। मोहित हो जाने से गुणों से सर्वथा अतीत जो भगवत्तत्त्व है, उसको नही जान सकता। यह उस भगवत्तत्त्व को तभी जान सकता है, जब त्रिगुणात्मक शरीर के साथ इसकी अहंता-ममता मिट जाती है। यह सिद्धांत है कि मनुष्य संसार से सर्वथा अलग होने पर ही संसार को जान सकता है और परमात्मा से सर्वथा अभिन्न होने पर ही परमात्मा को जान सकता है। कारण इसका यह है कि त्रिगुणात्मक शरीर से यह स्वयं सर्वथा भिन्न है और परमात्मा के साथ यह स्वयं सर्वथा अभिन्न है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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