श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताप कदाचन । अर्थ- यह सर्वगुह्यतम वचन अतपस्वी को मत कहना; अभक्त को कभी मत कहना; जो सुनना नहीं चाहता, उसको मत कहना; और जो मेरे में दोषदृष्टि करता है, उससे भी मत कहना। व्याख्या- ‘इदं ते नातपस्काय’- पूर्वश्लोक में आए ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’- इस सर्वगुह्यतम वचन के लिए यहाँ ‘इदम्’ पद आया है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए स्वाभाविक जो कष्ट आ जाए, विपरीत परिस्थिति आ जाए, उसको प्रसन्नतापूर्वक सहने का नाम ‘तप’ है। तप के बिना अंतःकरण में पवित्रता नहीं आती, और पवित्रता आए बिना अच्छी बातें धारण नहीं होती। इसलिए भगवान कहते हैं कि जो तपस्वी नहीं है, उसको यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं कहना चाहिए। जो सहिष्णु अर्थात सहनशील नहीं है, वह भी अतपस्वी है। अतः उसको भी यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं करना चाहिए। यह सहिष्णुता चार प्रकार की होती है- 1. द्वंद्वसहिष्णुता- राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदि द्वंद्वों से रहित हो जाना- ‘ते द्वंद्वमोहनिर्मुक्ताः’।[1]; ‘द्वंद्वैर्विमुक्ताः’[2] 2. वेगसहिष्णुता- काम, क्रोध, लोभ, द्वेष आदि के वेगों को उत्पन्न न होने देना- ‘कामक्रोधोद्भवं वेगम्’।[3] 3. परमतसहिष्णुता- दूसरों के मत की महिमा सुनकर अपने मत में संदेह न होना और उनके मत से उद्विग्न न होना[4]- ‘एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति’।[5] 4. परोत्कर्षसहिष्णुता- अपने में योग्यता, अधिकार, पद, त्याग, तपस्या आदि की कमी है, तो भी दूसरों की योग्यता, अधिकार आदि की प्रशंसा सुनकर अपने में कुछ भी विकार न होना- ‘विमत्सरः’(गीता 4:22); ‘हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः’।[6] ये चारों सहिष्णुताएँ सिद्धों की हैं। ये सहिष्णुताएं जिसका लक्ष्य हों, वही तपस्वी है और जिसका लक्ष्य न हों, वहीं अतपस्वी है। ऐसे अतपस्वी अर्थात असहिष्णु[7] को सर्वगुह्यतम् रहस्य न सुनाने का मतलब है कि ‘संपूर्ण धर्मों को मेरे में अर्पण करके तू अनन्यभाव से मेरी शरण आ जा’- इस बात को सुनकर उसके मन में कोई विपरीत भावना या दोष आ जाए, तो वह मेरी इस सर्वगुह्यतम बात को सह नहीं सकेगा और इसका निरादर करेगा, जिससे उसका पतन हो जाएगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 7:28
- ↑ गीता 15:5
- ↑ गीता 5:23
- ↑ आपस में मतभेद होना और अपने मत के अनुसार साधन करके जीवन बनाना दोष नहीं है, प्रत्युत दूसरों का मत बुरा लगना, उनके मत का खंडन करना, उनके मत से घृणा करना ही दोष है।
- ↑ गीता 5:5
- ↑ गीता 12:15
- ↑ असहिष्णुता और असूया में थोड़ा अंतर है। दूसरों की विशेषता को न सहना ‘असहिष्णुता’ है और दूसरों के गुणों में दोष देखना ‘असूया’ है।
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