श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
नात्याश्रतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्रतः। व्याख्या- ‘नात्यश्रतस्तु योगोऽस्ति’- अधिक खाने वाले का योग सिद्ध नहीं होता[1] कारण कि अन्न अधिक खाने से अर्थात भूख के बिना खाने से अथवा भूख से अधिक खाने से प्यास ज्यादा लगती है, जिससे पानी ज्यादा पीना पड़ता है। ज्यादा अन्न खाने और पानी पीने से पेट भारी हो जाता है। पेट भारी होने से शरीर भी बोझिल मालूम देता है। शरीर में आलस्य छा जाता है। बार-बार पेट याद आता है। कुछ भी काम करने का अथवा साधन, भजन, जप, ध्यान आदि करने का मन नहीं करता। न तो सुखपूर्वक बैठा जाता है और न सुखपूर्वक लेटा ही जाता है तथा न चलने फिरने का ही मन करता है। अजीर्ण आदि होने से शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिए अधिक खाने वाले पुरुष का योग कैसे सिद्ध हो सकता है? नहीं हो सकता। ‘न चैकान्तमनश्रतः’- ऐसे ही बिलकुल न खाने से भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि भोजन न करने से मन में बार-बार भोजन का चिन्तन होता है। शरीर में शक्ति कम हो जाती है। मांस-मज्जा आदि भी सूखते जाते हैं। शरीर शिथिल हो जाता है। चलना-फिरना कठिन हो जाता है। लेटे रहने का मन करता है। जीना भारी हो जाता है। बैठ करके अभ्यास करना कठिन हो जाता है। चित्त परमात्मा में लगता ही नहीं। अतः ऐसे पुरुष का योग कैसे सिद्ध होगा? ‘न चाति स्वप्नशीलस्य’- जिसका ज्यादा सोने का स्वभाव होता है, उसका भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि ज्यादा सोने से स्वभाव बिगड़ जाता है अर्थात बार-बार नींद सताती है। पड़े रहने में सुख और बैठे रहने में परिश्रम मालूम देता है। ज्यादा लेटे रहने से गाढ़ नींद भी नहीं आती। गाढ़ नींद न आने से स्वप्न आते रहते हैं, संकल्प विकल्प होते रहते हैं। शरीर में आलस्य भरा रहता है। आलस्य के कारण बैठने में कठिनाई होती है। अतः वह योग का अभ्यास भी नहीं कर सकता, फिर योग की सिद्धि कैसे होगी? ‘जाग्रतो नैव चार्जुन’- हे अर्जुन! जब अधिक सोने से भी योग की सिद्धि नहीं होती, तो फिर बिलकुल न सोने से योग की सिद्धि हो ही कैसे सकती है? क्योंकि आवश्यक नींद न लेकर अधिक जगने से बैठने पर नींद सतायेगी, जिससे वह योग का अभ्यास नहीं कर सकेगा। सात्त्विक मनुष्यों में भी कभी सत्संग का, सात्त्विक गहरी बातों का, भगवान की कथा का अथवा भक्तों के चरित्रों का प्रसंग छिड़ जाता है, तो कथा आदि कहते हुए, सुनते हुए जब रस, आनंद आता है, तब उनको भी नींद नहीं आती। परंतु उनका जगना और तरह का होता है अर्थात राजसी तामसी वृत्ति वालों का जैसा जगना होता है, वैसा जगना सात्त्विक वृत्तिवालों का नहीं होता। उस जगने में सात्त्विक मनुष्यों को जो आनंद मिलता है, उसमें उनको निद्रा के विश्राम की खुराक मिलती है। अतः रातों जगने पर भी उनको और समय में निद्रा नहीं सताती। इतना ही नहीं, उनका वह जगना भी गुणातीत होने में सहायता करता है। परंतु राजसी और तामसी वृत्ति वाले जगते हैं तो उनको और समय में निद्रा तंग करती है और रोग पैदा करती है। ऐसे ही भक्तलोग भगवान के नाम जप में, कीर्तन में, भगवान के विरह में भोजन करना भूल जाते हैं, उनको भूख नहीं लगती, तो वे ‘अनश्नत:’ नहीं है। कारण कि भगवान की तरफ लग जाने से उनके द्वारा जो कुछ होता है, वह ‘सत्’ हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दूसरों के भोजन के अपेक्षा अपना भोजन मात्रा में भले ही कम हो, पर अपनी भूख की अपेक्षा अधिक होने से वह भोजन अधिक ही माना जाता है।
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