श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय संबंध- आसक्तिरहित होकर कर्म करने अर्थात अपने लिये कोई कर्म न करने से क्या कोई परमात्मा को प्राप्त हो चुका है? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं। कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । व्याख्या- ‘'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’- ‘आदि’ पर ‘प्रभृति’[2] तथा ‘प्रकार’ दोनों का वाचक माना जाता है। यदि यहाँ आए ‘आदि’ पद को ‘प्रभृति’ का वाचक माना जाय तो ‘जनकादयः’ पद का अर्थ होगा- जिनके आदि[3] में राजा जनक हैं अर्थात राजा जनक तथा उसके बाद में होने वाले महापुरुष। परंतु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि राजा जनक से पहले भी अनेक महापुरुष कर्मों के द्वारा परमसिद्धि को प्राप्त हो चुके थे; जैसे सूर्य, वैवस्वत मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि।[4] इसलिये यहाँ ‘आदि’ पद को ‘प्रकार’ का वाचक मानना ही उचित है, जिसके अनुसार ‘जनकादयः’ पद का अर्थ है- राजा जनक जैसे गृहस्थाश्रम में रहकर निष्काम भाव से सब कर्म करते हुए परम सिद्धि को प्राप्त हुए महापुरुष, जो राजा जनक से पहले तथा बाद में[5] हो चुके हैं। कर्मयोग बहुत पुरातन योग है, जिसके द्वारा राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष परमात्मा को प्राप्त हो चुके हैं। अतः वर्तमान में तथा भविष्य में भी यदि कोई कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली हुई प्राकृत वस्तुओं[6] को कभी अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तव में वे अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तव में वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत संसार की और संसार के लिये ही हैं। इस वास्तविकता को मानकर संसार से मिली वस्तुओं को संसार की ही सेवा में लगा देने से सुगमतापूर्वक संसार से संबंध-विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्ति का सुगम, श्रेष्ठ और स्वतंत्र साधन है- इसमें कोई संदेह नहीं। यहाँ ‘कर्मणा एव’ पदों का संबंध पूर् श्लोक के ‘असक्तो ह्याचरन्कर्म’ पदों से अर्थात आसक्तिरहित होकर कर्म करने से है; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करने से ही मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त होता है, केवल कर्म करने से नहीं। केवल कर्म करने से तो प्राणी बँधता है- ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’।[7] गीता की यह शैली है कि भगवान पीछे के श्लोक में वर्णित विषय की मुख्य बात को[8] संक्षेप से आगे के श्लोक में पुनः कह देते हैं, जैसे पीछे के[9] श्लोक में आसक्तिरहित होकर कर्म करने की आज्ञा देकर इस बीसवें श्लोक में उसी बात को संक्षेप से ‘कर्मणा एव’ पदों से कहते हैं। इसी प्रकार आगे बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में वर्णित विषय की मुख्य बात को सातवें श्लोक में संक्षेप से ‘मय्यावेशितचेतसाम्’[10] पद से पुनः कहेंगे। यहाँ भगवान ‘कर्मणा एव’ के स्थान पर ‘योगेन एव’ भी कह सकते थे। परंतु अर्जुन का आग्रह कर्मों का स्वरूप से त्याग करने का होने तथा[11] कर्म का ही प्रसंग चलने के कारण ‘कर्मणा एव’ पदों का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ इन पदों का अभिप्राय[12] आसक्तिरहित होकर किये गये कर्मयोग से ही है। वास्तव में चिन्मय परमात्मा की प्राप्ति जड़ कर्मों से नहीं होती। नित्य प्राप्त परमात्मा का अनुभव होने में जो बाधाएँ हैं। वे आसक्तिरहित होकर कर्म करने से दूर होजाती है। फिर सर्वत्र परिपूर्ण स्वतः सिद्ध परमात्मा का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्व के अनुभव में आने वाली बाधाओं को दूर करने के कारण यहाँ कर्म के द्वारा परमसिद्धि[13] की प्राप्ति की बात कही गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निष्काम भाव से
- ↑ आरंभ
- ↑ आरंभ
- ↑ गीता 4।1-2
- ↑ आज तक
- ↑ शरीरादि
- ↑ महा. शांति. 241।7
- ↑ जो साधकों के लिये विशेष उपयोगी होती है।
- ↑ उन्नीसवें
- ↑ मुझमें चित्त लगाने वाले भक्त
- ↑ आसक्तिरहित होकर किये जाने वाले
- ↑ पूर्व श्लोक के अनुसार
- ↑ परमात्मतत्त्व
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