श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति दूर होने पर योग को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि वाले पुरुष के विषय में अर्जुन प्रश्न करते हैं। अर्जुन उवाच व्याख्या- [यहाँ अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के विषय में जो प्रश्न किये हैं, इन प्रश्नों के पहले अर्जुन के मन में कर्म और बुद्धि[1] को लेकर शंका पैदा हुई थी। परंतु भगवान ने बावनवें-तिरपनवें श्लोकों में कहा कि जब तेरी बुद्धि मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति को तर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा- यह सुनकर अर्जुन के मन में शंका हुई कि जब मैं योग को प्राप्त हो जाऊँगा, स्थित प्रज्ञ हो जाऊँगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे? अतः अर्जुन ने इस अपनी व्यक्तिगत शंका को पहले पूछ लिया और कर्म तथा बुद्धि को लेकर अर्थात सिद्धांत को लेकर जो दूसरी शंका थी, उसको अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का वर्णन होने के बाद[2] पूछ लिया। अगर अर्जुन सिद्धांत का प्रश्न यहाँ चौवनवें श्लोक में ही कर लेते तो स्थितप्रज्ञ के विषय में प्रश्न करने का अवसर बहुत दूर पड़ जाता।] ‘समाधिस्थस्य’[3]- जो मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो चुका है, उसके लियेयहाँ ‘समाधिस्थ’ पद आया है। ‘स्थितप्रज्ञस्य’- यह पद साधक और सिद्ध दोनों का वाचक है। जिसका विचार दृढ़ है, जो साधन से कभी विचलित नहीं होता, ऐसा साधक भी स्थितप्रज्ञ[4] है और परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है, ऐसा सिद्ध भी स्थितप्रज्ञ है। अतः यहाँ ‘स्थितप्रज्ञ’ शब्द से साधक और सिद्ध दोनों लिये गये हैं। पहले इकतालीसवें से पैंतालीसवें श्लोक तक और सैंतालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक साधकों का वर्णन हुआ है; अतः आगे के श्लोक में सिद्ध के लक्षणों में साधकों का भी वर्णन हुआ है। यहाँ शंका होती है कि अर्जुन ने तो ‘समाधिस्थस्य’ पद से सिद्ध स्थितप्रज्ञ बात ही पूछी थी, पर भगवान ने स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में साधकों की बातें क्यों कहीं? इसका समाधान है कि ज्ञानयोगी साधक की तो प्रायः साधन-अवस्था में ही कर्मों से उपरति हो जाती है। सिद्ध अवस्था में वह कर्मों से विशेष उपराम हो जाता है। भक्तियोगी साधक की भी साधन-अवस्था में जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्संबंधी कर्म करने की रुचि होती है और इनकी बहलता भी होती है। सिद्ध-अवस्था में तो भगवत्संबंधी कर्म विशेषता से होते हैं। इस तरह ज्ञानयोगी और भक्तियोगी- दोनों का साधन और सिद्ध अवस्था में अंतर आ जाता है, पर कर्मयोगी की साधन और सिद्ध अवस्था में अंतर नहीं आता। उसका दोनों अवस्थाओं में कर्म करने का प्रवाह ज्यों का त्यों चलता रहता है। कारण कि साधन अवस्था में उसका कर्म करने का प्रवाह रहा है और उसके योग पर आरूढ़ होने में भी कर्म ही खास कारण रहे हैं। अतः भगवान ने सिद्ध के लक्षणों में, साधक जिस तरह सिद्ध हो सके, उसके साधन भी बता दिये हैं और जो सिद्ध हो गये हैं, उनके लक्षण भी बता दिये हैं। ‘का भाषा’[5]- परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य को किस वाणी से कहा जाता है अर्थात उसके क्या लक्षण होते हैं? इसका उत्तर भगवान ने आगे के श्लोक में दिया है। ‘स्थितधीः किं प्रभाषेत’- वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है?[6] ‘किमासीत’- वह कैसे बैठता है अर्थात संसार से किस तरह उपराम होता है?[7] ‘व्रजेत किम्’- वह कैसे चलता है अर्थात व्यवहार कैसे करता है?[8] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2।47-50
- ↑ 3।1-2 में
- ↑ यहाँ ‘समाधि’ पद परमात्मा का वाचक है। इसी को पहले चौवालीसवें श्लोक में ‘समाधौ न विधीयते’ पदों से कहा है।
- ↑ स्थिर बुद्धि वाला
- ↑ ‘कया भाषया (वाण्या) भाष्यत इति भाषा।’
- ↑ इसका उत्तर भगवान ने छप्पनवें-सत्तावनें श्लोक में दिया है।
- ↑ इसका उत्तर भगवान ने अट्ठानवें श्लोक से तिरसठवें श्लोक तक दिया है।
- ↑ इसका उत्तर भगवान ने चौसठवें से इकहत्तरवें श्लोक तक दिया है।
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