श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप । अर्थ- हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं। व्याख्या- ‘ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप’- यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीनों के लिए एक पद और शूद्रों के लिए अलग एक पद देने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये द्विजाति हैं और शूद्र द्विजाति नहीं है। इसलिए इनके कर्मों का विभाग अलग-अलग है और कर्मों के अनुसार शास्त्रीय अधिकार भी अलग-अलग हैं। ‘कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः’- मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, उसके अंतःकरण में उस कर्म के संस्कार पड़ते हैं और उन संस्कारों के अनुसार उसका स्वभाव बनता है। इस प्रकार पहले के अनेक जन्मों में किए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है, उसी के अनुसार उसमें सत्त्व, रज और तम- तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इन गुणवृत्तियों के तारतम्य के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्मों का विभाग किया गया है।[1] कारण कि मनुष्य में जैसी गुणवृत्तियाँ होती हैं, वैसी वह कर्म करता है। कर्म दो तरह के होते हैं- (1) जन्मारम्भक कर्म और (2) भोगदायक कर्म। जिन कर्मों से ऊँच-नीच योनियों में जन्म होता है, वे ‘जन्मारम्भक कर्म’ कहलाते हैं और जिन कर्मों से सुख-दुःख का भोग होता है, वे ‘भोगदायक कर्म’ कहलाते हैं। भोगदायक कर्म अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को पैदा करते हैं, जिसको गीता में अनिष्ट, इष्ट और मिश्र नाम से कहा गया है।[2] गहरी दृष्टि से देखा जाए तो मात्र कर्म भोगदायक होते हैं अर्थात जन्मारम्भक कर्मों से भी भोग होता है और भोगदायक कर्म से भी भोग होता है। जिसका उत्तम कुल में जन्म होता है, उसका आदर होता है, सत्कार होता है; और जिसका नीच कुल में जन्म होता है, उसका निरादर होता है, तिरस्कार होता है। ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति वाले का आदर होता है और प्रतिकूल परिस्थिति वाले का निरादर होता है। तात्पर्य है कि आदर और निरादर रूप से भोग तो जन्मारम्भक और भोगदायक- दोनों कर्मों का होता है। परंतु जन्मारम्भक कर्मों से जो जन्म होता है, उसमें आदर-निरादर रूप भोग गौण होता है; क्योंकि आदर-निरादर कभी-कभी हुआ करते हैं, हरदम नहीं हुआ करते; और भोगदायक कर्मों से जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, उसमें परिस्थिति का भोग मुख्य होता है; क्योंकि परिस्थिति हरदम आती रहती है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज